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३ / धर्म और सिद्धान्त : ६७ विक रूपसे अथवा पुरुषकृत प्रयत्न द्वारा निमित्तका सहयोग प्राप्त नहीं होता है तब तक उपादान कार्यरूप परिणत नहीं होता है । इसका अभिप्राय यह है कि निमित्त उपादान में कार्योत्पत्तिके लिये उसकी कार्योत्पत्ति न हो सकने रूप असामर्थ्यका नियमसे भेदन करने वाला है । आगममें भी इस बातको स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि निमित्त कार्योत्पत्ति में यदि उपादानसे कार्योत्पत्ति न हो सकने रूप असामर्थ्यका भेदन नहीं करता है तो फिर उसे निमित्त कहना ही असत्य होगा ।" इसलिये जो महानुभाव कहते हैं कि "कार्य तो उपादान स्वयं अपनी सामर्थ्य से ही उत्पन्न कर लेता है उसमें उसको निमित्तके सहयोगकी बिल्कुल अपेक्षा नहीं रहा करती है, वह तो वहाँ पर सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है," तो उनका ऐसा कहना गलत ही है । साथ ही जो व्यक्ति व्यवहारविमूढ़ होकर ऐसा कहते हैं कि "निमित्त अपने रूपका समर्पण कार्य में करता है," तो उनका ऐसा कहना भी गलत हैं । कारण कि निमित्त यदि कार्य में अपना रूप समर्पित करने लग जाय तो फिर निमित्तमें उपादानकी अपेक्षा अन्तर ही क्या रह जायगा ? अर्थात् ऐसी स्थितिमें निमित्त स्वयं ही उपादान बन जायगा और तब उसे निमित्त कहना ही असंगत होगा । वेदान्त और चार्वाक दर्शनोंमें यही बात बतलायी गयी है कि वेदान्तके मतानुसार चित्से अचित्की उत्पत्ति होती है और चार्वाकके मतानुसार अचित्से चित्की उत्पत्ति होती है अर्थात् वेदान्त चित्को अचि त्का और चार्वाक अचित्को चित्का उपादान कारण मानते हैं । जैनदर्शन इन दोनों ही मान्यताओंका खण्डन करता है, कारण कि जैनदर्शनका यह सिद्धान्त है कि एक द्रव्य कभी दूसरे द्रव्यरूप परिणत नहीं होता और न कभी एक द्रव्यके गुण-धर्म ही किसी अन्य द्रव्यमें संक्रमित होते हैं । लेकिन वेदान्त और चार्वाककी उक्त मान्यताओंका खण्डन करता हुआ भी जैनदर्शन चित्को अचित्की परिणति तथा अचित्को चित्की परिणतिमें निमित्त कारण अवश्य मानता है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार में इन दोनों बातों का विस्तारसे विवेचन किया है । अर्थात् समयसारमें स्थानस्थानपर यही बात देखनेको मिलती है कि उसमें जहाँ एक वस्तुमें दूसरी वस्तुकी उपादानकारणताके सद्भाव का दृढ़ता के साथ निषेध किया गया है वहाँ उतनी ही दृढ़ताके साथ एक वस्तुमें दूसरी वस्तु की निमित्त - कारणतांका समर्थन भी किया गया है और यह बात हम पूर्वमें स्पष्ट ही कर चुके हैं कि निमित्तकारणता उपादानकारणताके रूपमें अभूतार्थं, असद्भूत, अवास्तविक और असत्यार्थं होते हुए भी स्वयं अपने रूपमें तो वह भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक और सत्यार्थ ही है । यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्यायके सूत्र ७ की व्याख्या करते हुए वार्तिक श्लोक १३ के अन्तर्गत पृष्ठ. ५१ पर सहकारी -- निमित्त कारणकी उपादानकी कार्यपरिणति में सहकारितारूपसे पारमार्थिकता ( वास्तविकता ) को स्पष्ट रूपसे स्वीकार किया है ।"
१. तदसामर्थ्यमखण्डयदकचित्करं कि सहकारिकारणं स्यात् ? - आन्तमीमांसा कारिका, १० की अष्टशती - टीका । २. जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दब्वे । —समयसार, गाथा १०३ का पूर्वार्द्ध ।
३. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक १२, १३ ।
४. समयसार, गाथा ८०, ८१ ।
५. क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्य प्रत्यासत्तेरुपादानोपादेयत्वस्य वचनात् । न चैवंविधः कार्यकारणभावः सिद्धान्तविरुद्धः । सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् ? कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धिः । यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य कारणमितरत्कार्य मिति प्रतीतम् । तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोग- समवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव, न पुनः कल्पनारोपितः, सर्वथाप्यनवद्यत्वात ।
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