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४२ : सरस्वती-वरदपुत्र ६० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
ऊपर बतलाये गये ढंगसे उपर्युक्त आठ कर्मोके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके आधार पर होनेवाली जीवोंकी अवस्थाओंकी उपयोगी कुल संख्या आगममें संक्षेपसे पचास बतलायी गयी है तथा इनमें तीन पारिणामिक भावोंको भी मिला देनेपर जीवकी अवस्थाओंकी संख्या तिरेपन हो जाती है। इन तिरेपन भावोंकी आगममें जो गणना की गयी है वह इस प्रकार है कि सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्रके रूपमें दो भाव औपशमिक हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य तथा सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र ये नौ भाव क्षायिक रूप हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययके रूपमें चार सम्यग्ज्ञान, कुमति, कुश्रुत और कु-अवधिके रूपमें तीन मिथ्याज्ञान, चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन और अवधिदर्शनके रूपमें तीन दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य के रूपमें पाँच लब्धियाँ ( शक्तियाँ ) तथा सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र और संयमासंयम ये अठारह भाव क्षायोपशमिक रूप हैं। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देवके रूपमें चार गतियाँ, क्रोध मान, माया और लोभके रूपमें चार कषाय, पुल्लिग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंगके रूपमें तीन लिंग, परपदार्थोंमें अहंकार और ममकाररूप मिथ्यादर्शन, ज्ञानविशेषका अभावरूप अज्ञान, चारित्रका अभावरूप असंयतत्व, संसारी अवस्थारूप असिद्धत्व तथा कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्लके रूपमें छह लेश्यायें ये इक्कीस भाव औदयिक रूप है। इसी प्रकार जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन भाव पारिणामिक
___आगममें आठ कर्मोंके भेदोंकी गणना इस प्रकार की गयी है कि ज्ञानावरणकर्म मतिज्ञानावरण आदिके रूपमें पाँच प्रकारका, दर्शनावरणकर्म चक्षुर्दर्शनावरण आदिके रूपमें नौ प्रकारका, वेदनीयकर्म साता तथा असाताके रूपमें दो प्रकारका, मोहनीयकर्म मिथ्यात्व आदि के रूपमें अट्ठाईस प्रकारका, आयुःकर्म नरकायु आदिके रूपमें चार प्रकारका, नामकर्म गति, जाति आदिके रूप में तेरानवे प्रकारका, गोत्रकर्म उच्च तथा नीच के रूप में दो प्रकारका और अन्तरायकर्म दानान्तराय आदिके रूप में पांच प्रकारका होता है ।२
___आगममें यह भी बतलाया गया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चारों कर्म जीवके यथायोग्य अनुजीवी गुणोंका घात करने में समर्थ होनेके कारण घाती कहलाते है तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चारों कर्म जीवके अनुजीवी गुणोंका घात करनेमें असमर्थ होनेके कारण अघाती कहलाते हैं। इतना ही नहीं, आगममें यह भी बतला दिया गया है कि संपूर्ण घाती कर्म तथा अघाती कर्मोंकी कुछ प्रकृतियाँ मिलकर पाप प्रकृतियाँ कहलाती हैं और अघाती कर्मोकी शेष प्रकृतियाँ पुण्य प्रकृतियाँ कहलाती हैं।
. ऊपर जो जीवके तिरेपन भावोंकी गणना की गयी है उनमेंसे तीन पारिणामिक भावोंको छोड़कर शेष पचास भाव उक्त कर्मों से उस कर्मके यथायोग्य उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमके आधारपर उत्पन्न होनेके कारण ही पूर्वोक्त प्रकार क्रमशः औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक नामसे पुकारे जाते हैं । इन औदयिकादिरूप पचास भावों मेसे मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्ररूप जो औदयिक भाव हैं वे भाव संसारके
१. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २ सूत्र २, ३, ४, ५, ६, ७ । २. वही, अध्याय ८ सूत्र, ६,७, ८, ९, १०, ११, १२, १३ । गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३८ । ३. पंचाध्यायी, अध्याय २ श्लोक ९९८ । ४. वही, अध्याय, २, श्लोक ९९९ । ५. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४३,४४ । ६. वही, गाथा ४१, ४२ ।
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