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३ / धर्म और सिद्धान्त: ५५ आचाररूप व्यवहारधर्मका विकास प्रथम गुणस्थान में नियमसे होता है क्योंकि इस प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास किये बिना अभव्य जीवमें क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंका तथा भव्य जीव इन लब्धियोंके साथ करणलब्धिका भी विकास नहीं हो सकता है । प्रथम गुणस्थान में देशविरति और सर्वविरति सम्यक् चारित्ररूप व्यवहारधर्मके विकसित होने का कोई नियम नहीं है, परन्तु देशविरति सम्यक् - चारित्ररूप व्यवहारधर्मका विकास, चतुर्थ गुणस्थानमें नियमसे होकर पंचम गुणस्थानमें भी नियमसे रहता है । एवं सर्वविरति-सम्यक्चारित्ररूप व्यवहारधर्मका पंचम गुणस्थान में नियमसे विकास होकर षष्ठसे दशम गुणस्थान तक उसका सद्भाव नियमसे रहता है ।
यहाँ इतना अवश्य ध्यातव्य है कि सप्तम गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उस व्यवहारधर्मका सद्भाव अंतरंग रूपमें ही रहा करता है । तथा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें यथासंभव रूप में रहनेवाला व्यवहारधर्म भी अबुद्धिपूर्वक ही विद्यमान रहता है। एकादश गुणस्थानसे लेकर आगे के सभी गुणस्थानोंमें व्यवहारधर्मका सर्वथा अभाव रहता है । वहाँ केवल निश्चयधर्मका ही सद्भाव रहता है । जीवको मोक्ष की प्राप्ति निश्चयधर्मपूर्वक होती है
प्रकृत में 'मोक्ष' शब्दका अर्थ जीव और शरीर के विद्यमान सहयोगका सर्वथा विच्छेद हो जाना है । जीव और शरीर के विद्यमान संयोगका सर्वथा विच्छेद चतुर्दश गुणस्थानमें तब होता है जब उस जीवके साथ बद्ध चार अघाती कर्मोंका सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको चतुर्दश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती हैं जब त्रयोदश गुणस्थान में कर्मास्रवमें कारणभूत जीवके योगका सर्वथा निरोध हो जाता है । जीवको त्रयोदश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घाती कर्मोंका द्वादश गुणस्थान में सर्वथा क्षय हो जाता है । जीवको द्वादश गुणस्थानकी प्राप्ति तब होती है जब जीवके साथ बद्ध मोहनीय कर्मप्रकृतियोंका पूर्व में यथासमय क्षय होते हुए दशम गुणस्थानके अन्त समय में शेष सूक्ष्म लोभप्रकृतिका भी क्षय हो जाता है । द्वादश गुणस्थानका अर्थ 'दशम गुणस्थानके अन्त समयमें मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो जानेपर जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मकी पूर्णता हो जाना है । इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि जीवको मोक्षकी प्राप्ति निश्चयधर्मपूर्वक होती है ।
जीवको निश्चयधर्मकी प्राप्ति व्यवहारधर्मपूर्वक होती है।
जीवके भाववतीशक्तिका निश्चयधर्मके रूपमें प्रारंभिक विकास चतुर्थं गुणस्थानके प्रथम समयमें होता है और उसका वह विकास पंचमादि गुणस्थानोंमें उत्तरोत्तर बृद्धिको प्राप्त होकर एकादश गुणस्थानके प्रथम औपशमिक यथाख्यात निश्चय सम्यक्चारित्र के रूपमें अथवा द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें क्षायिक-यथाख्यात निश्चयसम्यक् चारित्रके रूपमें पूर्णताको प्राप्त होता है । निश्चयधर्मका यह विकास मोहनीय कर्मकी उन-उन प्रकृतियों के यथास्थान यथासम्भव रूपमें होनेवाले उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होता है । तथा मोहनीयकर्मकी प्रकृतियोंका यथायोग्य वह उपशम, क्षय या क्षयोपशम भव्य जीवमें आत्मोन्मुखरूप करणलब्धिका विकास होनेपर होता है व उसमें उस करणलब्धिका विकास क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों के विकासपूर्वक होता है । एवं जीवमें इन लब्धियोंका विकास व्यवहारधर्मपूर्वक होता है । यह व्यवहारधर्म अशुभ प्रवृत्तिसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप होता है । जीवको इसकी प्राप्ति तब होती है जब उस जीवमें भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर होनेवाला तत्त्वश्रद्धानरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन और मस्तिष्क के सहारेपर होनेवाला तत्त्वज्ञानरूप व्यवहारसम्यग्ज्ञानकी उपलब्धि हो जाती है । इसके विकासकी प्रक्रियाको पूर्वमें व्यवहार
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