________________
५२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
(क) सर्वप्रथम जीवमें दर्शमोहनीयकर्मकी यथासंभवरूपमें विद्यमान मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृतिरूप तीन व चारित्रमोहनीयकर्मके प्रथम भेद अनन्तानुबन्धी कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववतीशक्तिका चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक निश्चयसम्यग्दर्शनके रूपमें व निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें शुद्ध स्वभावभुत परिणमन प्रकट होता है ।
(ख) इसके पश्चात् जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होनेपर उस जीवकी भाववतीशक्तिका पंचमगुणस्थानके प्रथम सम यमें देशविरति-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है।
(ग) इसके भी पश्चात जीवमें चारित्रमोहनीयकर्मके ततीय भेद प्रत्याख्यानावरण कषायकी नियमसे विद्यमान क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका क्षयोपशम होने पर उस जीवको भाववतीशक्तिका सप्तमगुणस्थानके प्रथम समयमें सर्वविरति-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है । ऐसा सप्तमगुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहर्त कालके अन्तरालसे सप्तमसे षष्ठ और षष्ठसे सप्तम इस तरह दोनों गुणस्थानोंमें यथायोग्य समय तक सतत झूलेकी तरह झूलता रहता है।
(घ) यदि वह सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव पहलेसे ही उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो अथवा सप्तम गुणस्थानके कालमें ही वह उक्त औपशमिक या क्षायिक निश्चयसम्यग्दर्शनको प्राप्त हो जावे, तो वह तब करणलब्धिके आधारपर नवनोकषायोंके साथ चारित्रमोहनीयकर्मके द्वितीय भेद अप्रत्याख्यानावरण और तृतीय भेद प्रत्याख्यानावरण इन दोनों कषायोंकी क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका तथा उसके चतुर्थ भेद संज्वलन कषायको क्रोध, मान, माया और लोभ प्रकृतियोंका भी यथा, स्थान निश्चयसे उपशम या क्षय करता है और उपशम होनेपर उसकी भाववतीशक्तिका एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें औपशमिक, यथाख्यातनिश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें अथवा क्षय होनेपर उसकी भाववतीशक्तिका द्वादश गणस्थानके प्रथम समयमें क्षायिक-यथाख्यात-निश्चयसम्यकचारित्रके रूप में शुद्ध स्वभावभूत परिणमन प्रकट होता है। व्यवहार धर्मक व्याख्या
व्यवहारधर्मकी व्याख्या करनेसे पूर्व यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि नारकी, देव और नियंच इन तीनों प्रकारके जीवोंमें केवल अगृहीत मिथ्यात्व पाया जाता है, अतः इनमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थितक्रमसे विवेचन करना संभव नहीं है। केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें अगहीतमिथ्यात्वके साथ गृहीतमिथ्यात्व भी पाया जाता है । फलतः मनुष्योंमें व्यवहारधर्मका व्यवस्थितक्रमसे विवेचन करना संभव हो जाता है । अतः यहाँ मनुष्योंकी अपेक्षा व्यवहारधर्मका विवेचन किया जाता है ।
चरणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार पापभूत अघाती कर्मोके उदयमें अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि १. निश्चयमोक्षमार्गस्य परम्परया कारणभूतो व्यवहारमोक्षमार्गः ।
(क) निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधकभावत्वात् । -समय०, गा० १५२ की टीका (ख) निश्चयमोक्षमार्गसाधकभावेन व्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । वही, गा० १६० की टीका (ग) व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । वही, गा० १६१ की टीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |