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४ / विशिष्ट निबन्ध : ३८१
५-यह नियत है कि धर्म, अधर्म, आकाश, काल और शुद्ध जीवका सदा शुद्ध परिणमन होता है अशुद्ध नहीं। ६-यह भी नियत है कि जीवका अशुद्ध परिणमन अनादिकालीन पुद्गल कर्म सम्बन्ध से हो रहा है और
इसके सम्बन्ध तक ही रहेगा। ७-यह नियत है कि द्रव्यमें उस समय जितनी पर्याय योग्यताएँ हैं उनमें जिसके अनुकूल निमित्त मिलेंगे वही
परिणमन होगा, शेष योग्यताएँ केवल सद्भावमें रहेंगी। ८-यह अतिनियत है कि प्रत्येक द्रव्यका प्रतिक्षण कोई न कोई परिणमन अवश्य होगा। यह परिणमन
द्रव्यगत मूल योग्यता और पर्यायगत विकासोन्मुख योग्यताओंकी सीमाके भीतर ही होगा, बाहर
कदापि नहीं। ९-यह भी नियत है कि निमित्त उपादान द्रव्यकी योग्यताका ही विकास करता है, उसमें असद्भूत किसी
सर्वथा नतन परिणमनको उत्पन्न नहीं कर सकता। १०-यह भी नियत है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमनका उपादान होता है। उस समयकी पर्याय-योग्यता रूप उपादानशक्तिके बाहरके किसी परिणमनको निमित्त कदापि नहीं उत्पन्न कर सकता । परन्तु
यही एक बात अनियत है कि "अमुक समयमें अमुक परिणमन ही होगा" जिस परिणमनका अनुकूल निमित्त मिलेगा वही परिणमन आगे होगा । यह कहना कि 'मिट्टीकी उस समय यही पर्याय होनी थी, अतः निमित्त उपस्थित हो गया' द्रव्य-पर्यायगत योग्यताओंके अज्ञानका फल है।
इतना ही तो पुरुषार्थ है कि उन सम्भाव्य परिणमनोंमें से अपने अनुकूल परिणमनके निमित्त जुटाकर उसे सामने ला देना।
देखो, तुम्हारा आत्मा अगले क्षण अतिक्रोधरूप भी परिणमन कर सकता था और क्षमारूप भी परिणमन कर सकता था। यह तो संयोगकी बात है जो मैं इस ओर निकल पड़ा और तुम्हारी आत्मा क्षमारूपसे परिणति कर रहा है। मुझे या किसी निमित्तको यह अहङ्कार नहीं करना चाहिए कि मैंने यह किया; क्योंकि यदि तुम्हारे आत्मामें क्षमारूपसे परिणमनकी विकासोन्मुख योग्यता न होती तो मैं क्या कर सकता था? अतः उपादान योग्यताकी मुख्यतापर दृष्टिपात करके निमित्तको निरहङ्कारी बनना चाहिए और उपादानको भी अपने अनुकूल योग्यता प्रकटाने के लिए अनुकूल निमित्न जुटानेमें पुरुषार्थ करना चाहिए । यह समझना कि 'जिस समय जो होना होगा उसका निमित्त भी अपने आप जुटेगा' महान् भ्रम है। भद्र, यदि तुम योग्य निमित्तोंके सुमेलका प्रयत्न न करोगे तो जो समर्थ निमित्त सामने होगा उसके अनुसार परिणमन हो जायगा । और यदि कोई प्रभावक निमित्त न रहा तो केवल अपनी भीतरी योग्यताके अनुसार द्रव्य परिणत होता रहेगा । उसके प्रतिक्षणभावी परिणमनको कोई नहीं रोक सकता । एक जलकी धारा अपनी गतिसे बह रही है । यदि उसमें लाल रंग पड़ जाय तो लाल हो जायगी और नीला पड़ जाय तो नीली । यदि कुछ न पड़ा तो अपनी भीतरी योग्यताके अनुसार जिस रूपमें है उस रूपसे बहती चली जायगी।
श्रमणनायकके इन युक्तिपूर्ण वचनोंको सुनकर सद्दालपुत्तका मन भींज गया। वह बोला-भन्ते, आपने तो जैसे ओंधेको सीधा कर दिया हो, अन्धेको आँखें दी हों। मेरा तो जनम-जनम का मिथ्यात्व नष्ट हो गया। मुझे शरणागत उपासक मानें।
भिखारी भी भगवानकी शरणमें प्राप्त हुआ। उसने कर्मोकी शक्तिको पुरुषार्थ द्वारा परिवर्तित करने की दृष्टि पाई और जीवनमें श्रमके महत्त्वको समझा। उसने कर्मोदय को भ्रान्त धारणावश स्वीकार किए गए भिखारीपनेको तुरंत छोड़ दिया और उसी कुम्हारके यहाँ परिश्रम करके आजीविका करने लगा।
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