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नारी:
मानवता का भविष्य
जैन धर्म मूलतः आत्मिक विकास का धर्म है । वहाँ आत्मशुद्धि गन्तव्य है, ज्ञान उसका प्रशस्त पथ है और अहिंसा का अनुशासन है पाथेय । जैनदर्शन में कर्ता व भोक्ता आत्मा है । जीव शब्द भी अधिकांशतः आत्मा वे पर्यायवाची के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है ।
महावीर ने ज्ञान की पराकाष्ठा पर पहुँच कर पाया कि आत्मा एक ऐसा तत्व है जो शक्ति की अनन्त संभावनाओं से युक्त है। साथ ही उन्होंने यह भी अनुभूत किया कि परिणति में अनन्तरूपी होने पर भी संभावनाओं में समस्त ब्रह्माण्ड की प्रत्येक आत्मा समान है। कर्म के फलस्वरूप ज्ञान के विकास और ह्रास के अनुरूप आत्मा का उत्थान और पतन अवश्यम्भावी है। कोई भी आत्मा, सम्पूर्ण आत्मशुद्धि से पूर्व, इस नियम से परे नहीं हैं । समानता के इसी मूलभूत सिद्धान्त की नींव पर ही निर्माण हुआ उस चतुर्विध सामाजिक परम्परा का जिसके नियम इसी सिद्धान्त भूमि से समय, काल और परिस्थिति के अनुरूप प्रस्फुटित होते रहे।
इस एक उद्घोष के पश्चात क्या इस प्रश्न का कोई स्थान रह जाता है कि “नारी का जैन धर्म में क्या स्थान है ?' फिर भी यदि यह प्रश्न उठा है तो महत्व इस प्रश्न का नहीं है । महत्व है उसके उठने के कारणों का, चाहे वह आज की बात हो अथवा सैकड़ों-हजारों वर्ष पूर्व की, चाहे वह सामान्य नागरिक की बात हो अथवा सामर्थ्यवान या चिन्तक की।
जैन आगमों में आत्मिक विकास के मार्ग पर स्त्री और पुरुष में भेद होने के संकेत नहीं मिलते। यह तथ्य जैन समुदाय की तत्कालीन सामाजिक मान्यताओं को भी परिलक्षित करता है। जैन परम्परा में नारी को अपने स्थान से च्युत करने की प्रक्रिया सर्वप्रथम आत्मिक विकास को अचेलत्व (नग्नतत्व) के साथ आवश्यक रूप से जोड़ने के आग्रह से आरम्भ हुई। यह था पाँचवीं शताब्दि के पश्चात का युग अथवा आगमिक। __ "सौ वर्ष की दीक्षिता साध्वी के लिये भी सद्यः दीक्षित साधु वन्दनीय है ।" आगमिक व्याख्याओं के युग में जैन समानता पर लगा यह धब्बा आज भी विद्यमान है । पुरुष वर्ग का यह आग्रह अति साधारण व आधारहीन तर्कों पर टिका था और इसे कभी का समाप्त हो जाना
सुरेन्द्र बोथरा [हिन्दी-अंग्रेजी आदि भाषाओं के । विशेषज्ञ-प्रस्तुत ग्रन्थ के सहसम्पादक
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