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________________ श्री जैन दिवाकर म्मृति- ग्रन्थ ।। चिन्तन के विविध बिन्दु : ४७२ : अपेक्षा द्रव्य और पर्याय को सत् से भिन्न माना गया है, द्रव्य और पर्याय के एकांत भेद प्रतिपादन को व्यवहाराभास कहते हैं, जैसे चार्वाक दर्शन । चार्वाक लोग द्रव्य के पर्यायादि को न मानकर केवल भूतचतुष्टय को मानते हैं अतः उन्हें व्यवहार भास कहा गया है। यह व्यवहारनय उपचारबहल और लौकिक दृष्टि को लेकर चलता है। बौद्ध लोग क्षण-क्षण में नाश होने वाली पर्यायों को ही वास्तविक मानकर पर्यायों के आश्रित द्रव्यों का निषेध करते हैं, इसलिए उनका मत ऋजुसूत्रनयाभास है। वस्तु के सर्वथा निषेध करने को ऋजुसूत्रनयाभास कहते हैं । वर्तमान क्षण की पर्याय मात्र की प्रधानता से वस्तु का कथन करना ऋजुसूत्रनय है-जैसे-इस समय मैं सुख की पर्याय भोगता हैं। परस्पर विरोधी लिंग, संख्यादि के भेद से वस्तु में भेद मानने को शब्दनय कहते हैं। वैयाकरण लोग शब्दनय आदि का अनुकरण करते हैं। कालादि के भेद से शब्द और अर्थ को सर्वदास अलग मानने को शब्दनयाभास कहते हैं । रूढ़ि से संपूर्ण शब्दों के एक अर्थ में प्रयुक्त होने को 'शब्दनय' कहते हैं। समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को द्योतित करता है । भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति होने से पर्यायवाची शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक हैं। पर्यायवाची शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढनयाभास कहते हैं। जिस समय व्यूत्पत्ति के निमित्त रूप अर्थ का व्यवहार होता है उसी समय में शब्द में अर्थ का व्यवहार होता है अर्थात् जिस क्षण में किसी शब्द की व्युत्पत्ति का निमित्त कारण संपूर्ण रूप से विद्यमान हो, उसी समय उस शब्द का प्रयोग करना उचित है--यह एवंभूतनय की मान्यता है। नय से विषयीकृत वस्तू धर्म को अभेदवृत्ति प्राधान्य अथवा भेदोपचार से क्रमशः कहने वाला वाक्य-विकलादेश कहा जाता है। अर्थात् विकलादेश क्रमशः भेदोपचार से अथवा भेद प्राधान्य से अशेष धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करता है क्योंकि उसको नयाधीनता है। प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार में देवेन्द्र सूरि ने कहा है "इयं सप्तभंगी प्रतिभंग सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा चेति ।" अर्थात् सप्तभंगी का एक-एक भंग सकलादेश स्वभाव की तरह विकलादेश स्वभाव भी स्वीकृत किया है। प्रमाण के सात भंगों की अपने विषय में विधि और प्रतिषेध की अपेक्षा नय के भी सात भंग होते हैं। नगमादि नयों में पहले-पहले नय अधिक विषय वाले हैं और आगे-आगे के नय परिमित विषय वाले हैं। संग्रहनय सत मात्र को जानता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष-दोनों को जानता है इसलिये संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है। व्यवहारनय संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानता है जबकि संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है इसलिए संग्रहनय का विषय व्यवहारनय की अपेक्षा अधिक है। व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्रनय से केवल वर्तमान पर्याय का ज्ञान होता है अतः व्यवहारनय का विषय ऋजसूत्रनय से अधिक है, इसी प्रकार शब्दनय से ऋजुसूत्रनय का, समभिरूढ से शब्दनय का, और एवंभूतनय से समभिरूढनय का विषय अधिक है। १ नय वाक्यमपि स्वविषये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभंगीमनुव्रजति । -प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, अ०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211242
Book TitleNaywad Vibhinna Darshano ke Samanvaya ki Apurva Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrichand Choradiya
PublisherZ_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
Publication Year1979
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size975 KB
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