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________________ ३२० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ तत्त्व सभी पदार्थों में व्याप्त है । जीव, अजीव आदि सभी उसीके भेद हैं । कोई भी ज्ञान सन्मानतत्त्वको जाने बिना भेदोंको नहीं जान सकता । कोई भी भेद सन्मात्रसे बाहर अर्थात् असत् नहीं है। प्रत्यक्ष चाहे चेतन सुखादिमें प्रवृत्ति करे, या बाह्य अचेतन नीलादि पदार्थोंको जाने, वह सद्रूपसे अभेदांशको विषय करता ही है । इतना ध्यान रखनेकी बात है कि एक द्रव्यमूलक पर्यायोंके संग्रह के सिवाय अन्य सभी प्रकारके संग्रह सादृश्यमूलक एकत्वका आरोप करके ही होते हैं और वे केवल संक्षिप्त शब्दव्यवहारको सुविधाके लिये हैं । दो स्वतन्त्र द्रव्योंमें चाहे वे सजातीय हों या) विजातीय, वास्तविक एकत्व आ हो नहीं सकता । संग्रहकी इस अभेददृष्टिसे सीधी टक्कर लेनेवाली बौद्धकी भेददृष्टि है, जिसमें अभेदको कल्पनात्मक कहकर उसका वस्तुमें कोई स्थान ही नहीं रहने दिया है। इस आत्यन्तिक भेदके कारण ही बौद्ध अवयवी, स्थूल, नित्य आदि अभेददृष्टिके विषयभूत पदार्थोंकी सत्ता ही नहीं मानते । नित्यांश कालिक अभेदके आधारपर स्थिर है; क्योंकि जब वही एक द्रव्य त्रिकालानुयायी होता है तभी वह नित्य कहा जा सकता है । अवयवी और स्थूलता देशिक अभेदके आधारसे माने जाते हैं । जब एक वस्तु अनेक अवयवों में कथंचित्तादात्म्यरूपसे व्याप्ति रखे, तभी वह अवयवीव्यपदेश पा सकती है । स्थूलतामें भी अनेक प्रदेशव्यापित्वरूप दैशिक अभेददृष्टि ही अपेक्षणीय होती है । इस नयी दृष्टिसे कह सकते हैं विश्व सन्मात्ररूप' है, एक है, अद्वैत है; क्योंकि सद्रूपसे चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है । अद्वयब्रह्मवाद संग्रहाभास है, क्योंकि इसमें भेदका "नेह नानास्ति किञ्चन" ( कठोप० ४|११ ) कहकर सर्वथा निराकरण कर दिया है। संग्रहनयमें अभेद मुख्य होनेपर भी भेदका निराकरण नहीं किया जाता, वह गौण अवश्य हो जाता है, पर उसके अस्तित्वसे इनकार नहीं किया जा सकता । अद्वयब्रह्मवाद में कारक और क्रियाओंके प्रत्यक्षसिद्ध भेदका निराकरण हो जाता है । कर्मद्वैत, फलद्वैत, लोकद्वैत, विद्याअविद्याद्वैत आदि सभीका लोप इस मतमें प्राप्त होता है । अतः सांग्रहिक व्यवहारके लिये भले ही परसंग्रहनय जगत्के समस्त पदार्थोंको 'सत्' कह ले, पर इससे प्रत्येक द्रव्यके मौलिक अस्तित्वका लोप नहीं हो सकता । विज्ञानकी प्रयोगशाला प्रत्येक अणुका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करती है । अतः संग्रहनयको उपयोगिता अभेदव्यवहारके लिये ही है, वस्तुस्थितिका लोप करनेके लिये नहीं । इसी तरह शब्दाद्वैत भी संग्रहाभास है । यह इसलिये कि इसमें भेदका और द्रव्योंके उस मौलिक अस्तित्वका निराकरण कर दिया जाता है, जो प्रमाणसे प्रसिद्ध तो है ही, विज्ञानने भी जिसे प्रत्यक्ष कर दिखाया है । व्यवहार और अव्यवहाराभास संग्रहह्नयके द्वारा संगृहीत अर्थ में विधिपूर्वक अविसंवादी और वस्तुस्थितिमूलक भेद करनेवाला व्यवहारय है । यह व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध व्यवहारका अविरोधी होता है । लोकव्यवहारविरुद्ध, विसंवादी और वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेवाली भेदकल्पना व्यवहाराभास है । लोकव्यवहार अर्थ, शब्द और ज्ञान 3 १. 'सर्वमेकं सदविशेषात् ' - तत्त्वार्थमा० ११३५ । २. संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकभवहरणं व्यवहारः ।' ३. 'कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ॥' --त० श्लो० पृ० २७१ । Jain Education International - सर्वार्थसि० १।३३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211238
Book TitleNaya Vichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Naya
File Size2 MB
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