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होते हैं वे नियमतः अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नहीं होते । कुछेक साधु अर्हत् आदि होते हैं।" साधु को नमस्कार करने में वह फल प्राप्त नहीं होता जो अर्हत् को नमस्कार करने में दृष्टि से नमस्कार महामन्त्र के पाँच पद किए गए हैं। उत्तरपक्ष का तर्क बहुत शक्तिशाली नहीं है, प्रसंग से द्विपक्षीय चिन्तन की सूचना अवश्य मिल जाती है । कर्त्ता की अपनी-अपनी अपेक्षा होती है। जिस समय अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय का महत्त्व बढ़ गया था उस समय महामन्त्र के कर्त्ता उनको स्वतन्त्र स्थान कैसे नहीं देते ?
होता है । इस फिर भी इस
नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम
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नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम भी चर्चित रहा है। क्रम दो प्रकार का होता है—पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी । पूर्वपक्ष का कहना है कि नमस्कार महामन्त्र में ये दोनों प्रकार के क्रम नहीं है । यदि पूर्वानुपूर्वी क्रम हो तो णमो सिद्धाणं, णमो अरहंताणं' ऐसा होना चाहिए। यदि पश्चानुपूर्वी क्रम हो तो गमो लोए सव्व साहूणं - यहाँ से वह प्रारम्भ होना चाहिए और उसके अन्त में ' णमो सिद्धाणं' होना चाहिए । उत्तरपक्ष का प्रतिपादन यह रहा कि नमस्कार महामन्त्र का कम पूर्वानुपूर्वी ही है। इसमें क्रम का व्यत्यय नहीं है। इस क्रम की पुष्टि के लिए नियुक्तिकार ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि सिद्ध अहं के उपदेश से ही जाने जाते हैं। वे ज्ञापक होने के कारण हमारे अधिक निकट हैं, अधिक पूजनीय हैं, अतः उनको प्रथम स्थान दिया गया। आचार्य मलयगिरि ने एक तर्क और प्रस्तुत किया कि अर्हत् और सिद्ध की कृतकृत्यता में दीर्घकाल का व्यवधान नहीं है। उनकी कृतकृत्यता प्राय: समान ही है । 2 आत्मविकास की दृष्टि से देखा जाए तो अहं और सिद्ध में कोई अन्तर नहीं होता। आत्म-विकास में बाधा डालने वाले चार घात्यकर्म ही हैं । उनके क्षीण होने पर आत्म-स्वरूप पूर्ण विकसित हो जाता है। विकास का अंश भी न्यून नहीं रहता । केवल भवोपग्राही कर्म शेष रहने के कारण अर्हतु शरीर को धारण किये रहते हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अर्हतु से सिद्ध बड़े हैं कि दृष्टि से बड़े-छोटे का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह प्रश्न मात्र व्यावहारिक है। व्यवहार
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के स्तर पर अर्हत् का प्रथम स्थान अधिक उचित है । अर्हत् या तीर्थंकर धर्म के आदिकर होते हैं । धर्म का स्रोत उन्हीं से निकलता है । उसी में निष्णात होकर अनेक व्यक्ति सिद्ध बनते हैं । अतः व्यवहार के धरातल पर धर्म के आदिकर या महास्रोत होने के कारण जितना महत्त्व अर्हत् का है उतना सिद्ध का नहीं । प्रथम पद में अर्हत् शब्द के द्वारा केवल की बात होती तो सामान्य आचार्य और उपाध्याय तीसरे
तीर्थंकर ही विवक्षित है, अन्य केवली या अर्हत् विवक्षित नहीं हैं । यदि नैश्चयिक दृष्टि केवली या सामान्य अर्हत् को पाँचवें पद में सब साधुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता। चौथे पद में हैं और केवली पाँचवें पद में । इसका हेतु व्यावहारिक उपयोगिता ही है ।
२. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १०२०
३.
आवश्यक नियुक्ति, गावा १०२१:
पुव्वाणुपुव्वि न कमो नेव य पच्छानुपुव्वि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए सानो आई ॥ आवश्यकनियुक्ति, गावा १०२२: 'अरिहंतुवएसेणं सिद्धा न ज्जंति तेण अरिहाई ।' आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ५५३ ।
४.
नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण
यह प्रश्न किया गया कि आचार्य अर्हत् के भी ज्ञापक होते हैं, इसलिए णमो आयरियाणं' यह प्रथम पद होना चाहिए। इसके उत्तर में नियुक्तिकार से कहा- आचार्य अर्हत की परिषद् होते हैं। कोई भी व्यक्ति परिषद्
आवश्यकनिएक्ति, गाथा १०२० :
अरिहंताई नियमा साहू साहू य तेसु भइयव्वा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्त हवइ सिद्धो ॥
५.
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मलयगिरिवृत्ति पत्र ५५२-५५३ ।
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