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- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य : जैन-धर्म १. संस्कारवत्व - व्याकरणीय नियमों से युक्त (भाषा सत्वप्रधानता - सत्वप्रधान एवं साहसिकपन से युक्त। ३३. की दृष्टि से सब प्रकार के दोषों से रहित)। २. औदात्य - उच्च वर्णपदवाक्यविविक्तता- वर्ण, पद, वाक्यों का विवेक (पृथक्स्वर से उच्चारित। ३. उपचारपरीतता - ग्रामीण दोषों से रहित। पृथ्क्) करने वाली। ३४. अव्युच्छित्ति-प्रतिपाद्य विषय को अपूर्ण ४. मेघगम्भीरघोषत्व - मेघ के जैसे गम्भीर घोषयुक्त। ५. न रखने वाली। ३५. अखेदित्व - किसी भी प्रकार के मानसिक, प्रतिनादविधायिता-प्रतिध्वनि से युक्त (चारों ओर दूर तक गुंजित वाचिक अथवा कायिक खेद से रहित। इस प्रकार भगवान् चार होने वाली)। ६. दक्षिणत्व - सरलतायुक्त। ७. उपनीतरागत्व - मूलातिशय, आठ प्रातिहार्य, चौतीस अतिशयों से और पैंतीस मालकोशादि रागों से युक्त अर्थात् संगीत की प्रधानता वाली। वाणी के अतिशयों से युक्त होते हैं। ये सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से होते हैं। ८. महार्थता -
अरिहंत भगवान् की उक्त लोकोत्तर एवं चित्त को चमत्कृत दीर्घार्थ वाली। ९. अव्याहतत्व - पूर्वापर विरोध से रहित (पहले
करने वाली विभूतियों के विषय में हमको यह आशंका हो कहा तथा बाद में कहा - उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं
सकती है कि वीतराग अरिहंत भगवान् इतनी विभूतियों से युक्त होना)। १०. शिष्टत्व - अभिमत सिद्धांत-प्रतिपादक और वक्ता।
थे, ऐसा कैसे मान लिया जाए? इसका निराकरण है कि हम की शिष्टता की सूचक। ११. संशयानामसम्भवः - जिसके
लोग कर्मावरण से आवरित होने से अपने स्वयं के ही बलश्रवण से श्रोताजनों का संशय पैदा ही न हो। १२.
पराक्रम को नहीं समझते हुए ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्यान्वित निराकृतोऽन्योत्तरत्व - किसी भी प्रकार के दोष से रहित (जिस हो चट से कह देते हैं कि ये तो असम्भव है. परन्त परम योगीन्द्रों कथन में किसी प्रकार का दूषण न हो और न भगवान् को वही
में इतनी विभूतियाँ होना असम्भव नहीं है। जिस प्रकार हम दूसरी बार कहना पड़े)। १३. हृदयंगमता - श्रोता के अंतःकरण
विषय-वासना के दास और स्वार्थ में मग्न हैं, वैसे वे नहीं होते। को प्रमुदित करने वाली। १४. मिथ:साकांक्षता - पदों और ।
अत: उन्हें विषय-वासना अपनी ओर नहीं खींच सकती। वे मेरु वाक्यों की सापेक्षता से युक्त। १५. प्रस्तावौचित्य-यथावसर
के समान अप्रकम्प्य होते हैं। उनके पास उक्त विभूतियों का देशकाल भाव के अनुकूल। १६. तत्त्वनिष्ठता - तत्त्वों के वास्तविक नाम
होना कोई आश्चर्य नहीं है। वर्तमान युग में भी सामान्य योगस्वरूप को धारण करने वाली। १७. अपकीर्णप्रसृतत्व - बहु
साधना के साधक भी हमको आश्चर्यान्वित करने वाली महिमा विस्तार और विषयान्तर दोष से रहित। १८. अस्वश्लाघान्यनिन्दिता
वाले होते हैं। तो भला जो आत्मा की सर्वोच्चतम दशा को प्राप्त - अपनी प्रशंसा और दूसरों क निन्दा इत्यादि दुर्गुणों से रहित
हो गए हैं, जिनके निकट किसी प्रकार की वासना नहीं है, उनके १९. आभिजात्य - प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप भूमिकानुसारी।
समीप ऐसी आश्चर्यजन्य विभूतियों का होना कोई असम्भव २०. अस्तिस्निग्ध-मधुरत्व - घृतादि के समान स्निग्ध और ,
बात नहीं है। शर्करादि के समान मधुर। २१. प्रशस्यता - प्रशंसा के योग्य। २२. अमर्मवेधिता - दूसरों के मर्म अथवा गोप्य को न प्रकाशित
प्रश्न - ऐसे महिमाशाली अरिहंतों को अरि यानी शत्रुओ करने वाली। २३. औदार्य - प्रकाशनयोग्य अर्थ को योग्यता से
को और हंताणं यानी मारने वाले, इस सम्बोधन से क्यों सम्बोधित प्रकाशित करने वाली। २४. धर्मार्थप्रतिबद्धता - धर्म और अर्थ
किया जाता है ? यदि अपने शत्रुओं को मारने वाले को अरिहंत से युक्त। २५. कारकाद्यविपर्यास - कारक, काल, लिंग, वचन
कहा जाता है, तो संसार के सब जीव इस संज्ञा को प्राप्त होंगे और क्रिया आदि के दोषों से रहित। २६. विभ्रमादिवियुक्तता -
और जो डाकू तथा चोर आदि जितने भी अत्याचारी हैं, वे सब विभ्रम विक्षेप आदि चित्त के दोषों से रहित। २७. चित्रकृत्व -
के सब भी इस संज्ञा को प्राप्त क्यों नहीं होंगे? क्योंकि वे भी तो श्रोताजनों में निरंतर आश्चर्य पैदा करने वाली। २८. अद्भुतत्व
__ अपने शत्रुओं का ही संहार करते हैं और मित्रों का पालन करते - अश्रुतपूर्व। २९. अनतिविलम्बिता - अति विलम्ब दोष से
हैं। अत: इस हिसाब से उन्हें भी हमारी समझ से तो अरिहंत इस रहित। ३०. अनेकजातिवैचित्र्य - नाना प्रकार के पदार्थों का
संज्ञा से ही सम्बोधित करना चाहिए। विविध प्रकार से निरूपण करने वाली। ३१. आरोपित विशेषता उत्तर - धन्यवाद महोदय, आपका एवं आपके सोचने के - अन्य के वचनों की अपेक्षा विशेषता दिखलाने वाली। ३२ प्रकार का अभिनन्दन। आपने तो ऐसी बात करके अपनी बद्धि
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