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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म उक्त प्रश्रों के उचित एवं संतोषप्रद उत्तर मंत्रवादियों के रे मानव ? देख यह कथन हम जैसे व्यक्ति का नहीं, पास नहीं है। यदि हम ही स्वयमेव इन प्रश्नों का समाधान प्राप्त किन्तु जिसने अपनी आत्मशक्ति के आधार पर ही अवलम्बित करने की प्रवृत्ति करते हैं तो हमको चिन्तन का नवनीत यही होकर आत्मविकास किया है, उस सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग का मिलेगा कि जो बल, जो श्रद्धा, जो सामर्थ्य हमारी भावना में है, है। 'वीतरागप्रवचन' में कहा गया है कि मानव यदि प्रयत्न करता वह किसी में भी नहीं। हम सोचते रहे जगभर की बुराई तो हमारी है, तो वह धन, पुत्र तो क्या केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। भलाई होगी कैसे ? समुद्र के विशालकाय मत्स्यों की भोंहों में स्वर्ग के सुखों में आकण्ठ डूबे हुए, अविरति-भोगासक्त देवया कानों पर चावलों के दाने जितनी काया वाला तन्दुल नाम देवी कुछ भी प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। तीर्थकर, चक्रवर्ती का अति छोटा मत्स्य होता है। वह अपने नन्हे से जीवन में आदि भी तो मनुष्य ही थे, उन्होंने कभी किसी की ओर आशा रत्तीभर माँस नहीं खाता और न खुन की एक बँद पीता है। वह रखकर देखा हो, ऐसा हुआ ही नहीं। श्रीपाल जी ने कब सिद्धचक्र किसी को किसी प्रकार का दुःख भी नहीं देता, परन्तु उन को छोड़कर अन्य की आराधना की थी? नवपदाराधन से ही विशालकाय मत्स्यों की भोंहों पर बैठा, वह हिंस्र विचारों मात्र से उनके सब कार्य सिद्ध हुए थे। विमलेश्वर देव स्वत: ही उनकी ही नरक जैसा महाभयंकर यातना-स्थान प्राप्त हो, वैसा बंध सेवा के लिए आया था। वे भी तो मानव थे और हम भी मानव प्राप्त करता है और अन्तर्मुहूर्त का जीवन समाप्त कर उस स्थान हैं। मानव के द्वारा अमानवीय कार्य होना स्वयं के हाथों स्वयं को प्राप्त भी हो जाता है। हमारे शास्त्रकारों ने तभी तो उद्घोषणा का अपमान है। प्रश्न हो सकता है कि देवी-देवता हमारे विघ्नों की है कि - "अप्पा कत्ता विकत्ता य" यानी आत्मा ही कर्ता है को दूर करते हैं। अतः हम उनकी आराधना करते हैं। समाधान और आत्मा ही भोक्ता है और "यादृशी भावना यस्य, सिद्धिर्भवति भी तैयार है। अच्छा भाई, माना कि वे हमारे विघ्नों को दूर करते तादृशी"। अपने ही हाथों ही अपने पैर को काटकर सोचना कि हैं, अतः हम उनकी आराधना करते हैं। इसके साथ यह भी तो पीड़ा का अनुभव कोई अन्य करे, यह कैसे सम्भव हो सकता है? सर्वसत्य है कि - कहीं फूलों की और कहीं कंक की बरसात जिसने जैसे कर्म किए हैं, उसको तदनुसार ही फल प्राप्त होता है। हो, तो आराधकों के मत से ये देवी-देवता आ जाते हैं, परन्तु खेद का विषय है कि हम शास्त्रों और शास्त्रकारों द्वारा जब परधर्मी लोग धर्म के जूनून से उन्मत्त होकर उपासकों पर निर्दिष्ट मार्ग को छोड़कर जिस प्रकार पागल वास्तविक को हमला करते हैं, उनका धन लूटते हैं, मंदिर और मूर्तियों के टुकड़े करते हैं और उनके सामने ही उनकी माँ-बहनों की इज्जत पर छोड़कर अवास्तविक की ओर जाता है, वैसे ही उन्मार्गगामी होते हाथ डालते हैं। उन आतताइयों को शिक्षा देने के लिए ये देवीजा रहे हैं, किन्तु याद रखो असली हीरा देखने में भले भद्दा हो देवता क्यों नहीं आते ? न जाने किस गह्वर में घुस जाते हैं, जब और काँच का टुकड़ा देखने में सुन्दर हो, किन्तु मूल्य तो हीरे का उनकी जीवनपर्यन्त सेवा करने वालों पर हमला होता है। समझ ही होगा काँच का नहीं। परन्तु ! शास्त्रकारों के कथन में हमको में नहीं आता, अनन्त शक्ति का भंडार मानव इस भ्रांत धारणा विश्वास नहीं और न श्रद्धा ही है। हमको तो चाहिए मात्र धन और के प्रवाह में कैसे बह जाता है ? भ्रम से भूले लोग कहते हैं - धन। सदैव इस विचारणा में रहकर जीवन नष्ट कर दिया। भले "जीवन को प्रगतिशील बनाने के लिए यंत्र-मंत्र और तंत्र एक लोग समझाते हैं, किन्तु अक्ल नहीं आती। आये कहाँ से धन महत्त्वपूर्ण आलम्बन है और हमारे पूर्वाचार्यों ने अमुक-अमुक संचय का भूत जो सवार है। राजाओं को देवी-देवताओं की आराधना के बल पर जैन बना इस प्रकार के मांत्रिक और मंत्रेच्छुओं को सोचना चाहिए कि दिया. मंत्रीश्वर विमल शाह ने अम्बिका की आराधना करके - "हमने किसी महत्पुण्योदय से यह मनुष्यावतार पाया, जिनेन्द्र संसार को आश्चर्यान्वित करने वाले आबू के प्रसिद्ध मन्दिरों का धर्म भी पाया और तत्त्व-स्वरूप भी समझा है ? तो फिर हम क्यों निर्माण करवा दिया।" ऐसी सब बातें वृथा हैं। उससे पराङ्मुख हैं? वीतराग-प्रवचन में मानव को महान् शक्ति लोग स्वयं भूल करते हैं और उसे अपने पूर्वाचार्यों पर का स्वामी, देवों का प्रिय तथा देवों का वन्दनीय भी कहा गया है। लादने का विफल प्रयास करते हैं। श्रीजम्बुकुमार ने किसका "देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो" स्मरण करके प्रभव चोर को हतप्रभ किया था ? श्रीसिद्धसेन సారసాగరతారగారురురురురురు రురురురురురంగారసాగరmen Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211234
Book TitleNamaskar Mahamantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendravijay
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages19
LanguageHindi
ClassificationArticle & Panch Parmesthi
File Size3 MB
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