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से सर्वथा परे रहने वाले । उनके लिए यदि किसी ने कुछ भी बनाया, तो उसका त्याग करने वाले, चित्त से भी उसकी चाहना नहीं करने वाले, मधुकरी-वृत्ति से भिक्षा ग्रहण करने वाले, छोटीबड़ी सब स्त्रियों को माँ-बहन समझने वाले, ब्रह्मचर्यव्रत के बाधक समस्त स्थानों का त्याग करने वाले । बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करने वाले मुनिराज को साधु अथवा श्रमण कहते हैं। श्रीनमस्कारमंत्र के पाँचवें पद पर ऐसी अनुमोदनीय वन्दनीय साधुता के धारक बाईस परीषहों को जीतने वाले तथा शास्त्रों के अर्थों के चिंतन-मनन व अध्ययन-अध्यापन में जीवन यापन करने वाले मुनिराज को नमस्कार किया गया है। अन्तिम श्रुतकेवली भगवान् श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनिर्युक्ति में लिखा है -
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
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निव्वाण साहए जोगे, जम्हा साहन्ति साहुणो । समय सव्वभूये, तम्हा वे भाव साहुणो ।।
निर्वाण - साधक योगों की क्रियाओं को जो साधते हैं और सब प्राणियों पर समभाव धारण करते हैं, वे भावसाधु हैं । १३ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र में साधु का व्युत्पत्यर्थ तीन प्रकार से किया गया है।
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" साधयति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधुः ' "समतां च सर्वभूते ध्यायतीति निरुक्तन्यायात् साधुः " "सहायको वा संयमकारिणं साधयतीति साधुः '
जो ज्ञान, दर्शन इत्यादि शक्तियों से मोक्ष की साधना करते हैं या सब प्राणियों के विषय में समता का चिंतन करते हैं अथवा संयम पालने वाले के सहायक होते हैं, वे साधु हैं।
ऐसी अनुमोदनीय एवं स्तुत्य साधुता के धारक मुनिवरों सत्ताईस गुण होते हैं, जो इस प्रकार हैं- सर्वतः प्राणातिपात विरमणादि पाँच महाव्रत और रात्रिभोजन - विरमण व्रत ६, पृथ्वीकायादि षट्काय के संरक्षण ६, इन्द्रियनिग्रह ५, भावविशुद्धि १, कषायनिग्रह ४, अकुशल मन, वचन और काया का निरोध ३, परीषहों का सहन १ और उपसर्गों में समता १ ये २७ गुण अथवा बाह्याभ्यन्तर तप १२, निर्दोष आहार - ग्रहण १, अतिक्रमादि दोष-त्याग ४, द्रव्यादि अभिग्रह ४ और व्रत ६ आदि २७ गुण हैं।
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भावदया जिन के हृदपद्म में विराजमान है, ऐसे साधु मुनिराज नित्य आत्म-साधना करते हुए 'कर्म से संत्रस्त जीव किस प्रकार से बचें ?' इस उपाय को सोचते हुए क्रोध, मान, माया
और लोभ राग-द्वेषादि आभ्यन्तर शत्रुओं को परास्त करने के कार्य में लगे, भूमंडल पर विचरण कर संसारी जीवों को सन्मार्गारूढ़ कर मोक्षनगर जाने के लिए धर्म रूप मार्ग का पाथेय देने वाले, पापाश्रमों का त्याग करने वाले, अंगीकृत महाव्रतों का निर्दोषतापूर्वक पालन करने वाले मुनिराज की आदरणीय एवं प्रशंसनीय साधुवृत्ति को नमस्कार करते हुए श्रीमद् मुनिसुन्दर सूरीश्वरजी महाराज ने श्री आध्यात्म - कल्पद्रुम में लिखा है ये तीर्णा भववारिधिं मुनिवरास्तेभ्यो नमस्कुर्महे । येषां नो विषयेषु गृध्यति मनो नो वा कषायैः युतम् ॥ राग-द्वेषविमुक्प्रशान्तकलुषं साम्याप्तशर्माद्वयं । नित्यं खेलति चात्मसंयमगुणा क्रीडे भजद्भावना ।। १ ।।
जिन महामुनिवरों का मन इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं होता, कषायों से व्याप्त नहीं होता, जो राग-द्वेष से मुक्त रहते हैं, पाप-कर्मों (व्यापारों) का त्याग किया है जिन्होंने । समता द्वारा अखिलानन्द प्राप्त किया है, जिन्होंने और जिनका मन आत्मसंयम रूप उद्यान में खेलता है। संसार से तिर जाने वाले ऐसे मुनिराजों को हम नमस्कार करते हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी महाराज भी श्रीनवपद - पूजा में लिखते हैं
संसार छंड़ी द्दढ मुक्ति मंडी, कुपक्ष मोडी भव पास तोडी । निग्गंथ भावे जसु चित्त आत्थि, णमो भवि ते साहु जणत्थि ।। १ ।। जे साहगा मुक्ख पहे दमणं, णमो णमो हो भविते मुणिणं । मोहे नही जेह पडंति धीरा, मुणिण मज्झे गुणवंत वीरा ।। २ ।।
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि नमस्कार मंत्र में दो विभाग हैं, नमस्कार और नमस्कार - चूलिका । 'नमो लोए सव्व साहूणं' यहाँ तक के पदों से पञ्चपरमेष्ठी को अलग-अलग नमस्कार किया गया है। "एसो पञ्च (पंच) नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो, मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं" यह चूलिका नमस्कार फल दर्शक है। जो नमस्कार मंत्र के आदि के पाँच पदों के साथ नित्य स्मरणीय है। कुछ लोग कहते हैं कि चूलिका नित्य पठनीय नहीं, अपितु जानने योग्य है, परन्तु उनका यह कथन तत्थ्यांशहीन है। शास्त्राकारों की आज्ञा है कि
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'त्रयस्त्रिंशदक्षरप्रमाणचूलासहितो नमस्कारो भणनीयः ' (अभिधानराजेन्द्रकोश, भा. ४, पृष्ठ १८३६)
अतः पैंतीस अक्षरप्रमाण मंत्र और तेंतीस अक्षर चूला दोनों को मिलाकर अड़सठ अक्षरप्रमाण श्री नमस्कार मंत्र का स्मरण करना चाहिए, न्यूनाधिक पढ़ना दोषमूलक है। ind १ २ পম
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