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हे भगवन् ? तीर्थंकर - सम्बन्धी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता कि आचार्य सम्बन्धी ? गौतम ? नामाचार्य, स्थापनाचार्य, द्रव्याचार्य और भावाचार्य इस प्रकार चार प्रकार के आचार्य कहे गये हैं। उनमें से भावाचार्य तीर्थंकरसमान होने से उनकी आज्ञा का कदापि उल्लंघन नहीं करना ।
इस प्रकार आचार्य शासन के आधारस्तम्भ एवं परम माननीय हैं। आचार्य महाराज के छत्तीस गुण शास्त्रों में इस प्रकार आये हैं
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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म
पंचिंदिय - संवरणो, तह नवविह बम्भचेर गुत्तिधरो । चविह कसाय मुक्को, इअ अठ्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥ १ ॥ पंच महव्वय जुत्तो, पंचविहायार पालण समत्थो । पंच समिओ ति गुत्तो, छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ||२||
पाँचों इन्द्रियों को वश में रखने वाले अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय इन पाँचों को २२ विकारों से संवृत करने वाले, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य-गुप्ती के धारक। चारों कषायों से मुक्त। इन अठारह गुणों से युक्त तथा सर्वतः प्राणातिपात विरमण, सर्वतः मृषावाद - विरमण, सर्वतः अदत्तादान - विरमण, सर्वतः मैथुन - विरमण और सर्वतः परिग्रह - विरमण इन पाँचों महाव्रतों से युक्त पाँच प्रकार के आचारों का पालन करने में समर्थ पाँच समितियों तथा तीन गुप्तियों से युक्त इस प्रकार छत्तीस गुणों के धारक गुरु अर्थात् आचार्य महाराज हमारे गुरु हैं।
१४४४ ग्रन्थ- प्रणेता जैन शासन- नभोमणि आचार्य-वर्य श्रीमद् हरिभद्र सूरिजी महाराज ने संबोध प्रकरण में आचार्य के ३६ गुणों का वर्णन अनेक प्रकार से तथा गुरुपद का विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया है। गच्छाचार पयन्ना में भी आचार्य के अतिशयों तथा योग्यायोग्यत्व पर विस्तृत विवेचन किया है।
प्रश्न नमो आयरियाणं के स्थान पर नमो आइरियाणं क्यों नहीं बोला जाता है ?
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उत्तर - महानिशीथ - सूत्र के तीसरे अध्ययन में, पंचमांग भगवतीसूत्र के मंगलाचरण में, आवश्यकसूत्रनिर्युक्ति और गच्छाचार पयन्ना आदि अनेक आगमग्रन्थों में आयरियाणं ही लिखा है। न कि आइरियाणं । अर्थशुद्धि की दृष्टि से भी आयरियाण ही लिखना ठीक है।
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प्रश्न - आचार्य सर्वज्ञ नहीं हैं, फिर भी उनको "तित्थयर समो सूरि' कहकर तीर्थंकर की उपमा क्यों दी गई है ? क्या यह अनुचित नहीं है ?
उत्तर - श्रमण भगवान महावीर देव ने श्री गौतम स्वामी प्रश्न के उत्तर में जो भावाचार्य को तीर्थंकर के समान कहा है, वह अनुचित नहीं, अपितु उचित है, क्योंकि भावाचार्य आगमज्ञ एवं समयज्ञ होते हैं। प्रत्येक प्रकार की आचरणा का आचरण वे आगमानुसार ही कहते हैं । आगमोक्त वस्तु तत्व को निर्भयतापूर्वक जनता में तर्कयुक्त रीति से प्रकाशित करते हैं। कर्म रोग से आक्रांत जीवों को जिनेन्द्रशरण देकर शुद्ध देव गुरु और धर्म रूप उपास्यत्रयी, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यग् चरित्र रूप तत्त्वत्रयी का दर्शन कराकर जीवनोत्कर्ष का मार्ग दिखलाते हैं। अतः वे अपने लिए तो तीर्थंकर के समान ही हैं। इसी से उन भावाचार्य महाराज को यह उपमा दी गई है। शेष नामाचार्य, द्रव्याचार्य और स्थापनाचार्य को नहीं । आचार्यवर्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने भी नवपदपूजा में लिखा है -
जिणाण आणम्मि मणं हि जस्स णमो णमो सूरि दिवायरस्स । छत्तीस वग्गेण गुणायरस्स, आयारमग्गं सुपयासयस्स ।। सूरिवरा तित्थयरा सरीसा, जिणिन्दमग्गं मिणयंति सिस्सा। सुतत्थ भावाण समं पयासी, ममं मणंसी वसियो णिरासी ।। (जिनस्य आज्ञायां यस्य मनो वर्तते तस्मै सूरिदिवाकराय नमो नमः षट्त्रिशद्वर्गेण गुणाकराय आचारमार्गस्य सुप्रकाशकाय - सूरिवराछः तीर्थंकराः सदृशाः जिनेन्द्रमार्गं वहन्ति शिरसा । सूत्रार्थ भावानां सममेव प्रकाशकः मम मनसि वसितोऽनिराशी । )
जिन का अन्तःकरण जिनेश्वरों की आज्ञा में रत है। उन आचार्यवर्यों को बार-बार नमस्कार हो जो आचार्य छत्तीस गुणों
धारक हैं। आचारका मार्ग जिन्होंने दिखलाया है। वे आचार्य तीर्थंकर के समान है, जो जिनेन्द्र भगवान के शासन को शिरसा वहन करते हैं। जो सूत्रों के अर्थ को एवं मर्म को जनता के सामने रखते हैं। ऐसे आचार्य महाराज मेरे (हमारे) हृदय में वास करें।
उपाध्याय
श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यकनिर्युक्ति में कहा है - बार संगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहियो बुहेहिं । तं वसन्ति जम्हा, उवज्झाया तेण वुञ्चति । । ÔNG TỐN CÔNG ? Tôi côn Ô TÔ TO SC GC C TÔN G
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