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________________ ५०२ स्वीकार करता है कि अणु का विखण्डन करने से अतुल ऊर्जा का स्फुरण होता है, उसी प्रकार वर्तमान क्षण की प्रेक्षा से अनन्त ज्ञान का भण्डार खुल जाता है। पतंजलि की भाषा में ऋतम्भरा प्रज्ञा का स्फुरण हो जाता है यह प्रज्ञा (बोध) लोकोत्तर होती है, प्रत्यक्ष अनुमान इससे बनने वाले संस्कार पूर्व संस्कारों को समाप्त कर अन्त में स्वयं भी विलीन हो जाती है। कर्मबन्ध का नाश हो जाता है, साधक के लिए मोक्ष का द्वार खुल जाता है। T लेश्या ध्यान-कर्म संस्कारों सहित आत्मप्रदेशों का स्पन्दन लेश्या है आत्मप्रदेश में यह स्पन्दन मोहनीय कर्मों के उदय, क्षयोपशम उपशम और क्षय के कारण होता है । ३ यह स्पन्दन कषायों से उपरंजित होता है (कषायोदयारंजिता योगप्रवृतिः) सर्वार्थसिद्धि, २/६/१५९ [११]| ध्यान द्वारा इन कषायों का शोधन होता है। ये कषाय कर्मसंस्कार रूप हैं। कर्मसंस्कारों से भावों की सृष्टि होती है। भाव सामान्यतः रूप और आकारहीन प्रतीत होते हैं, जबकि उनमें वर्ण (रूप) होता है। यह रूप इतना सूक्ष्म होता है कि चर्म चक्षुओं से प्रायः नहीं दिखायी पड़ता। प्राचीन मनीषियों ने इस वर्ण का साक्षात्कार किया था। इसी आधार पर सांख्यकारिका और उपनिषदों में सत्त्व, रज और तमस् इन गुणों को शुभ्र, लोहित और कृष्ण वर्ण वाला माना गया है। दिव्य पुरुषों के शिर के पीछे तेजोमय प्रभामण्डल की कल्पना भावों के रूप के आधार पर की गयी है। आधुनिक विज्ञान ने भी विशेष फोटो कैमरा के माध्यम से भावमण्डल के अनेक वर्णों के चित्र भी प्राप्त किये हैं। तात्पर्य यह है कि कर्मसंस्कारों से जीव में जो भाव (विचार) के रूप में स्पन्दन होता है, वह अनेक वर्ण का हुआ करता है। प्राचीन मनीषियों ने अत्यन्त अशुभ भावों का वर्ण काला और अत्यन्त शुभ भावों का वर्ण शुभ्र माना है। इनके मध्य में अर्थात् श्याम से शुभ्र के बीच नीलवर्ण, कापोत वर्ण, तेजोमय (लाल) पद्मवर्ण (पीला) ये चार वर्ण और माने हैं। अर्थात् अत्यन्त अशुद्धतम भावों की लेश्या कृष्णवर्ण, अशुद्धतर की नील, अशुद्ध की कापोत वर्ण, शुद्ध की अग्निवर्ण (लाल), शुद्धतर की पद्मवर्ण (पीली) और शुद्धतम की लेश्या शुभ्र (शुक्ल) वर्ण की होती है। ये रंग इन लेश्याओं के पुद्गल परमाणुओं के होते हैं। लेश्याध्यान में इन वर्णों का ही ध्यान किया जाता है। क्लिष्ट और अक्लिष्ट भावों की दृष्टि से भी इन लेश्याओं को देखा जा सकता है। क्लिष्ट भाव के तारतम्य के आधार पर दो और भेद होंगे-क्लिष्टतर और क्लिष्टतम । इसी प्रकार अक्लिष्ट भावों के अक्लिष्टतर तथा अक्लिष्टतम दो अन्य भेद होंगे। इस प्रकार क्लिष्टतम, किलष्टतर, क्लिष्ट, अक्लिष्ट, अक्लिष्टतर और अक्लिष्टतम कुल छः भेद होंगे। इन भावों से सम्बद्ध लेश्याएँ क्रमशः कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होंगी। इस प्रकार लेश्याओं के वर्ण (रंग) विविध स्तरों में विद्यमान अशुभ अथवा शुभ और क्लिष्ट अथवा अक्लिष्ट कर्मसंस्कारों और उनके कारण आत्मा में होने वाले स्पन्दनों के प्रतीक हैं। O उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ लेश्याध्यान की साधना सिद्धगुरु के निर्देश से करनी चाहिए, क्योकि वह ही भली प्रकार निर्णय दे सकता है कि किस व्यक्ति में किस लेश्या की प्रधानता है। इसलिए उसे किस वर्ण की लेश्या से ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए। सामान्यतः अत्यन्त अशुभ विचारों वाले, अकारण बिना किसी निज स्वार्थ सिद्धि अथवा लोकहित की संभावना के बहाने दूसरों को पीड़ा देने वाले व्यक्ति को कृष्ण लेश्या का मनुष्य समझना चाहिए और उसे काले रंग पर ध्यान करना चाहिए। स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों को अधिक हानि पहुँचाने वाले व्यक्ति को नील लेश्या का समझना चाहिए और उन्हें नीले रंग पर ध्यान करना चाहिए। स्वार्थसिद्धि के लिए कुछ हिचकते हुए दूसरों को पीड़ा पहुँचाकर कार्यसिद्धि की कामना रखने वाले कापोत लेश्या वाले होते हैं। उन्हें कापोत वर्ण अथवा हरे रंग पर ध्यान करना चाहिए। स्वार्थ हानि की सम्भावना न होने पर अर्थात् अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए परोपकार, सेवा-सर्वजन हितकारी कार्य करने वाले व्यक्ति तेजोलेश्या वाले होते हैं, उन्हें लाल रंग से ध्यान साधना प्रारम्भ करनी चाहिए। अपनी स्वार्थ हानि करके भी लोकोपकार करने वाले सत्पुरुष पद्मलेश्या वाले होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को पीले रंग पर ध्यान करना चाहिए। सब कुछ लुटाकर स्वयं को संकट में भी डालकर दूसरों का हित करने वाले अथवा सर्व समत्व की भावना में प्रतिष्ठित व्यक्ति शुक्ल लेश्या वाले पुरुष हैं। उन्हें शुक्ल वर्ण पर ध्यान करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति ध्यान प्रारम्भ करते ही समाधि में पहुँच जाते हैं। कुछ तो समाधि भाव में सदा रहते ही हैं। कृष्णवर्ण से लेकर पद्म (पीत) वर्ण तक सभी वर्णों में श्यामिता अवश्य रहती है। कृष्ण में सर्वाधिक, नील में कुछ कम कापोत में उससे कम, लाल में अल्प और पीले में अल्पतर, शुक्लवर्ण श्यामिता से रहित होता है। लेश्या के वर्ण को पहचानकर कृष्ण, नील अथवा किसी वर्ण पर ध्यान प्रारम्भ करने वाला व्यक्ति क्रमशः अपने कर्मसंस्कारों में श्यामिता (कालुष्य) को क्षय करने का संकल्प लेता है, उसके लिए प्रयत्न करता है और उत्तरोत्तर संस्कार शुद्धि करता हुआ कृष्ण को नील में, नील को कापोत में, कापोत को लाल में, लाल को पद्म (पीले) में तथा पद्म को शुक्ल में परिवर्तन करता है क्योंकि यह परिवर्तन कर्मसंस्कारों में होता है, इसलिए बहुत मन्द होता है, देर लगती है। यदि रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना साथ-साथ चलती है, तो एक जन्म में ही अन्यथा एकाधिक जन्म में साधक शुक्ल ध्यान का अधिकारी हो जाता है। लेश्याध्यान-साधना के प्रसंग में जैन आचार्यों की मान्यता है कि अत्यन्त सामान्य साधक कृष्ण लेश्या में ध्यान साधना करते हुए श्यामिता की निवृत्ति करके जब नील लेश्या की स्थिति में पहुँचता है, तो उसका स्वाधिष्ठान चक्र संयमित (जागृत) हो जाता है, उसे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का लाभ होता है, भूख पर नियंत्रण हो जाता है, क्रूरता, हिंसात्मक प्रवृत्ति विलीन हो जाती है। कापोत ध्यान तक पहुँचते-पहुँचते, उसके स्नायु पीड़ा की अनुभूति Prejel GROS neren 29 000
SR No.211229
Book TitleDhyan Yoga Drushti aur Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnant Bharti
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Meditation Yoga
File Size5 MB
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