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का स्मरण-ध्यान किया जाता है, जिन्होंने समस्त विषय-विकारों पर जैन आगमों में धर्म-ध्यान के ४ प्रकार बताये हैं - १. आज्ञा विजय प्राप्त कर अपनी आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास कर लिया -विचय २. अपाय विचय ३. विपाक विचय और ४. संस्थान है । वन्दन में अरिहन्त-सिद्ध रूप देव एवं आचार्य, उपाध्याय, विचय । विचय का अर्थ है - विचार करना, जागतिक पदार्थों से, साधुरूप गुरु को वन्दन कर अहम् से मुक्त होने का उपक्रम किया सांसारिक प्रपंचों से मन को हटाकर आत्म-स्वभाव में मन को जाता है । प्रतिक्रमण में ग्रहण किये हुए व्रत-नियमों की परिपालना लगाना, आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों की खोज करना । आज्ञा में जो स्खलना हो जाती है, उनका चिन्तन कर उन्हें निःसत्व करने विचय का अर्थ है - आप्त पुरुषों, आगम-प्रमाणों और "जिन" का तथा उन दोषों की पुनरावृत्ति न करने का ध्यान किया जाता वचनों के आदेशों को अनिवार्य रूप से आचरण में उतारना, उनके है | कायोत्सर्ग में शरीर जन्य ममता से हटने और आत्मा के ___अन्तस् में डूबना । अपाय का अर्थ है - दोष, पाप । समस्त दुःखों, सम्मुख होने का चिन्तन-मनन किया जाता है । प्रत्याख्यान में पापों से मुक्त होने के लिए अशुभ संकल्प-विकल्पों को त्याग कर साधना मार्ग में आगे बढ़ने के लिए विशेष संकल्प-नियम लिये जाते शुभ भावों में प्रवृत्ति करना, विचरण करना अपाय विचय है । हैं, जिससे आत्म-शक्ति अधिकाधिक पुष्ट हो और धर्म-धारणा संसार में जो सुख-दुख आते-जाते हैं, उनका कारण स्वयं के अच्छेसुदृढ़ बने ।
बुरे कर्म हैं । इन कर्मों की विपाक-प्रक्रिया का चिन्तन कर, रागवर्तमान धर्म-साधना में यद्यपि ध्यान-धारणा की कोई व्यस्थित
द्वेष रूप कर्म बीजों को नष्ट करने में पुरुषार्थ करना विपाक विचय परिपाटी अविच्छिन्न रूप से चली आती हुई नहीं दिखाई देती पर
है। कर्म विपाक का चिन्तन करते - २, लोक के स्वरूप को देखतेप्रतिक्रमण की परिपाटी आज भी जीवित है । प्रतिक्रमण का जो
देखते अपनी आत्मा में संस्थापित होना, ठहरना संस्थान विचय है। रूप आज प्रचलित है, वह प्रतिक्रमण के पाठों को दोहराने तक ही से जब मन आर्त्त और रौद्र ध्यान से हटकर धर्म-ध्यान में लीन सीमित रह गया है | उसका ध्यान तत्त्व गायब हो गया है । पाठों होता है, तब जो लक्षण प्रकट होने लगते हैं, उन्हें रुचि कहा गया को दोहराने मात्र से मन की सफाई नहीं होती । उसके लिए शान्ति, है। जैन आगमों मे आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि स्थिरता और अनुप्रेक्षा आवश्यक है | आज का प्रतिक्रमण ध्यान न के रूप में धर्म-ध्यान के चार लक्षण बताये गये हैं। रुचि का अर्थ होकर ध्यान की परिपाटी तैयारी मात्र है।
है - चमक, शोभा, प्रकाश-किरण । जब साधक के मन में शुभ४. स्व-संवेदन - प्रतिक्रमण जब तैयारी से आगे बढ़ता है, अपनी
विचारों की लहर चलती है, तब उसका प्रभाव प्रकाश रूप में प्रकट अन्तर्यात्रा आरंभं करता है तभी स्व-संवेदन हो पाता है । जब तक
होता है। धर्म की आज्ञा सत्य की आज्ञा है। सत्य का प्रकाश इन्द्रियां और मन बाहरी विषयों से हटकर अन्तर्मुखी नहीं बनते,
नैसर्गिक योग्यता और शक्ति को प्रस्फुटित करता है । उससे जो स्व-संवेदन नहीं हो पाता । पंच भौतिक तत्त्वों से बना हुआ जैसे
नैसर्गिक नियम हैं, सूत्र हैं उनका स्वतः पालन होने लगता है और बाहरी संसार है वैसे ही हमारा देह पिण्ड भी है । इसमें पृथ्वी,
धर्म में, सदाचरण में, आत्म-स्वभाव में गहरी पैठ-अवगाहना होने जल, अग्नि, वायु और आकाश के तत्व की व्यापकता, जल तत्व
लगती है। की तरलता, अग्नि तत्व की उष्णता, वायु तत्व की सजीवता और २. विषय-निवृत्ति - विचारों की विशुद्धता से धीरे - २ मन सूक्ष्म आकाश तत्व की असीमता की भावना कर वह जड़-चेतन को होने लगता है । इन्द्रियजन्य जड़ता और भोग के प्रति रही हुई सुख अनुभूति के स्तर पर समझने लगता है, देखने और परखने लगता । की अभिलाषा से साधक परे होकर आत्म-रमण करने लगता है। है। उनके प्रति किसी प्रकार का राग-द्वेष न कर समता भाव में उसका ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप गुण प्रकट होने लगता है । रहने-रमण करने का अभ्यास करने लगता है।
जैन आगमों में प्रतिपादित धर्म-ध्यान के चार आलम्बन-वाचना, सम्यक्त्व-बोध, व्रत-ग्रहण, प्रतिक्रमण और स्व-संवेदन होने
पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षा-स्वाध्याय में, आत्म-रमण में सहयोगी पर ही धर्म-ध्यान और शुक्ल ध्यान सध पाता है । ये दोनों ध्यान
बनते हैं । विचार मूर्त से अमूर्त और स्थूल से सूक्ष्म की ओर वास्तविक अर्थ में शुभ और प्रशस्त ध्यान हैं । जब साधक इस
प्रयाण करते हैं । साधक, एकत्त्व, अनित्य, अशरण और संसार ध्यान साधना में गहरा उतरता है, तब उसकी प्रभावानुभूति निम्न
रूप चार भावनाओं से अनुभावित होकर सांसारिक विषय-वासनाओं रूपों में प्रकट होती है -
से उपरत होने लगता है । उसे अनुभव होता है कि वह आत्म
स्वरूप की दृष्टि से एकाकी है, स्वतंत्र है, स्वाधीन है, पर भावना १. विचार-विशुद्धि २. विषय - निवृत्ति ३. कषाय - मुक्ति
के स्तर पर प्राणी मात्र के प्रति उसकी एकता है । अपरिचय और ४. परमात्म - सिद्धि
अकेलेपन से वह मुक्त है, सबके प्रति एकत्व बोध उसकी अपनी १. विचार-विशुद्धि - ध्यान किसी एक वस्तु पर मन को टिकाना । शक्ति है । इन्द्रियों के भोग अनित्य मात्र नहीं है । मन में उठने वाले विचार व्यक्ति को दुःखी न करें, हैं। ये पर के अधीन है, "पर" व्याकुल न बनायें, क्रूर और कठोर न बनायें बल्कि विचारों में पर आश्रित हैं । जो इनसे परे हो इतनी पवित्रता और निर्मलता आये कि प्राणिमात्र के प्रति प्रेम का, जाता है, वही संसार से पार हो मैत्री का आत्मीय संबंध जुड़ जाए । यही धर्म-ध्यान है | धर्म का जाता है । यहाँ कोई किसी को अर्थ सम्प्रदाय या पंथ नहीं है | धर्म है - आत्म-स्वभाव, कुदरत का शरण नहीं दे सकता । स्वयं की नियम, उन गुणों और शक्तियों का धारण, जिसके कारण जगत में आत्मा ही, उसका गुण-धर्म ही उसके शांति और समता बनी रहे।
लिए शरण है । वह अपना नाथ स्वयं है, कोई उसका नाथ नहीं ।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(१२)
मन की विमल विचारणा करे कुटिलता नाश । जयन्तसेन सरल बनो, पावो पद अविनाश ।।
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