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धर्मविहीन रूढ़ परम्पराओं को भावी पीढ़ी धर्म समझने लगती है ।
धर्म शब्द का आशय एवं लक्षण
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एक बात समझ लेनी आवश्यक है कि जहाँ-जहाँ शास्त्रों में या धर्मग्रन्थों धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है, वहाँ-वहाँ आत्मधर्म समझना चाहिए क्यों कि कार्तिकेयानुप्रेक्षानुसार -“वस्तु का अपना स्वभाव ही धर्म है। इस दृष्टि से आत्मा का अपना स्वभाव ही धर्म है। चाणक्य के अनुसार - "वही सुख का मूल है । ' वही उत्कृष्ट मंगल है।' धर्म सब दुःखों का अतुल औषध है। आत्मा के लिए वही विपुल बल है । " यह धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है, इस जन्म में भी और पर जन्म में भी । " यही कल्पतरु और कामधेनु है । कणादऋषि के अनुसार - " जिससे अभ्युदय की और निःश्रेयस यानी मोक्ष की प्राप्ति हो वही धर्म है । " " आचार्य समन्तभद्र के अनुसार- "जो उत्तम सुख
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धारण ग्रहण कराता है वह धर्म है। उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग बताकर, मोक्ष को उत्तम सुख प्राप्ति का कारण बताया है। आचार्य तुलसी ने धर्म का लक्षण किया है- ( संवर और निर्जरा द्वारा) 'आत्मशुद्धि का साधन धर्म है।' 'कतिपय आचार्यों और मनीषियों ने धर्म शब्द का निर्वचन करते हुए धारण करने के कारण इसे धर्म कहा है । ११ क्या और कैसे धारणा करता है यह? इसके उत्तर में उन्होंने कहा- “दुर्गति कुपथ में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करके रखता है, वह धर्म है ।
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शुद्ध आत्मधर्म : किसी की बपौती नहीं
इस दृष्टि से जब विश्व की समस्त आत्माओं के स्वभाव को धर्म कहा है, तब निश्चय ही वह आज के विभिन्न विशेषणों वाले धर्मों, पंथों, संप्रदायों, धर्मसंघों या मतों, दर्शनों से बिल्कुल अलग है, यह शुद्ध आत्म धर्म
धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग
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जैन संस्कृति का आलोक
किसी धर्मसंघ, पंथ, मत या सम्प्रदाय से बंधा हुआ नहीं है और न ही इस पर किसी भी तथाकथित धर्मसंघ या विशेषणयुक्त धर्म, पंथ आदि का एकाधिकार है, और न इस पर किसी की बपौती है। जो इस शुद्ध धर्म का आचरण करता है, उसी का यह धर्म है। इस दृष्टि से इस शुद्ध आत्मधर्म पर न किसी धर्म, सम्प्रदाय, पंथ, मत या विशेषणयुक्त धर्म का आधिपत्य अतीत में रहा है, न ही वर्तमान में है और न ही अनागत में रहेगा। यह शुद्ध धर्म किसी भी साम्प्रदायिक या पांथिक वेश-भूषा, वर्ण जातिपांति या बाह्य क्रियाकाण्ड में नहीं है । १३ वेष, चिह्न आदि के नानाविध विकल्प तो सिर्फ जनसाधारण के परिचय पहचान के लिए हैं । वस्तुतः धर्म उसी का है, जो उसका पालन-धारण- रक्षण करता है और धर्म का पालन रक्षण करने वाले का रक्षण भी वह करता है । १५ रक्षण से मतलब यहाँ आत्मरक्षण से है। जो आत्माएँ धर्म का पालन-रक्षण करती हैं, अपने स्वभाव में रमण करती हैं, उनको वह धर्म विभाव से तथा परभावों के प्रति रागद्वेषादि से बचाता है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है- (धर्मपालन द्वारा) सर्वेन्द्रियों को सुसमाहित होकर आत्मा की रक्षा करनी चाहिए। जो धर्मपालन के द्वारा आत्मा की रक्षा नहीं करता है, वह जन्ममरण के मार्ग (संसार भ्रमण ) को पाता है और आत्मा को सुरक्षित रखने वाला समस्त दुःखों १६
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मुक्त
शुद्ध धर्म : ध्रुव और शाश्वत
विविध विशेषणों वाले धर्म से सम्बन्धित समाजों में प्रायः इस बात की बहुत चर्चा चलती रहती है कि कौनसा और किसका धर्म प्राचीन है और कौन-सा किसका धर्म अर्वाचीन है? शुद्ध आत्मधर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न खड़े करना ना समझी है । यह शुद्ध धर्म न तो कभी पुराना होता है और न ही नया कहलाता है। वह तो ध्रुव, नित्य, शाश्वत है।' 'अगर आत्मधर्म पुराना हो
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