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आपको मालूम है कि हमारा ईश्वर कहां रहता है? वह कहीं आकाश के किसी वैकुण्ठ में नहीं बैठा है, बल्कि वह आपके मन के सिंहासन पर बैठा है, हृदय मन्दिर में विराजमान है वह । जब बाहर की आँख मूंदकर अन्तर में देखेंगे, तो उसकी ज्योति जगमगाती हुई पाएंगे, ईश्वर को विराजमान हुआ देखेंगे।
ईश्वर और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं। आत्मा और परमात्मा सर्वथा भिन्न दो तत्त्व नहीं हैं। नर और नारायण दो भिन्न शक्तियाँ नहीं हैं। जन और जिन में कोई अन्तर नहीं है, कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है। आध्यात्मिक दर्शन की भाषा में कहा जाए, तो सोया हुआ ईश्वर जीव है, संसारी प्राणी है, और जागृत जीव ईश्वर है, परमात्मा है मोहमाया की निद्रा में मनुष्य जब तक अन्धा हो रहा हो, वह जन है, और जब जन की अनादि काल से समागत मोह - तन्द्रा टूट गई, जन प्रबुद्ध हो उठा, तो वही जिन बन गया। जीव और जिन में, और क्या अन्तर है ? जो कर्म-लिप्त दशा में अशुद्ध जीव है, कर्म मुक्त दशा में वही शुद्ध जीव जिन है।
'कर्मबद्धो भवेज्जीवः कर्ममुक्तस्तथा जिन: '
बाहर में बिन्दु की सीमाएँ हैं, एक छोटा-सा दायरा है। पर अन्तर में वही विराट् सिन्धु है, उसमें अनन्त सागर हिलोरें मार रहा है, उसकी कोई सीमा नहीं कोई किनारा नहीं। एक आचार्य ने कहा है
"दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्त-चिन्मात्रमूर्तये ।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ।"
जब तक हमारी दृष्टि देश - काल की क्षुद्र सीमाओं में बँधी हुई है, तब तक वह अनन्त सत्य के दर्शन नहीं कर पाती और जब वह देश - काल की सीमाओं को तोड़ देती है, तो उसे अन्दर में अनन्त, अखण्ड देशातीत एवं कालातीत चैतन्य ज्योति के दर्शन होते हैं। एक दिव्य, शान्त, तेज का विराट् पुंज परिलक्षित हो जाता है। आत्मा की अनन्त शक्तियाँ प्रकाशमान हो जाती हैं। हर साधक उसी शान्त तैजस रूप को देखना चाहता है, प्रकट करना चाहता है। साधक के लिए वही नमस्करणीय उपास्य है। चैतन्य कैसे जगे ?
हमें इस बात पर भी विचार करना है कि जिस विराट् चेतना को हम जगाने की बात कहते हैं, उस जागरण की प्रक्रिया क्या है? उस साधना का विशुद्ध मार्ग क्या है? हमारे जो ये क्रियाकाण्ड चल रहे हैं, बाह्य तपस्याएँ चल रही हैं,
शिक्षा एक यशस्वी दशक
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क्या उससे ही वह अन्तर का चैतन्य जाग उठेगा ? केवल बाह्य साधना को पकड़ कर चलने से तो सिर्फ बाहर और बाहर ही घूमते रहना होता है, अन्दर में पहुँचने का मार्ग एक दूसरा है और उसे अवश्य टटोलना चाहिए। आन्तरिक साधना के मार्ग से ही अन्तर के चैतन्य को जगाया जा सकता है उसके लिए आन्तरिक तप और साधना की जरूरत है। हृदय में कभी राग की मोहक लहरें उठती हैं, तो कभी द्वेष की ज्वाला दहक उठती है। वासना और विकार के आँधी-तूफान भी आते हैं। इन सब द्वन्द्वों को शान्त करना हो अन्तर की साधना है। आंधी और तूफान से अन्तर का महासागर क्षुब्ध न हो, समभाव की जो लौ जल रही है, वह बुझने नहीं पाए, बस यही चैतन्य देव को जगाने की साधना है । यही हमारा समत्व योग है। समता आत्मा की मूल स्थिति है, वास्तविक रूप है जब यह वास्तविक रूप जग जाता है, तो जन में जिनत्व प्रकट हो जाता है। नर से नारायण बनते फिर क्या देर लगती है ? इसलिए अन्तर की साधना का मतलब हुआ समता की साधना । राग-द्वेष की विजय का अभियान !
क्या कर्म ने बाँध रखा है ?
साधकों के मुंह से बहुधा एक बात सुनने में आती है कि हम क्या करें? कर्मों ने इतना जकड़ रखा है कि उनसे छुटकारा नहीं हो पा रहा है। इसका अर्थ है कि कर्मों ने बेचारे साधक को बाँध रखा है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या कर्म कोई रस्सी है, सॉकल है, जिसने आपको बाँध लिया है? यह प्रश्न गहराई से विचार करने का है कि कर्मों ने आपको बाँध रखा है या आपने कर्मों को बाँध रखा है? यदि कर्मों ने आपको बाँध रखा है, तो फिर आपकी दासता का निर्णय कर्मों के हाथ में होगा और तब मुक्ति की बात तो छोड़ ही देना चाहिए। ऐसी स्थिति में जप, तप और आत्मशुद्धि की अन्य क्रियाएँ सब निरर्थक हैं। जब सत्ता कर्मों के हाथ में सौंप दी है, तो उनके ही भरीसे रहना चाहिए। कोई प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है? वे जब तक चाहेंगे, आपको बाँधे रखेंगे और जब मुक्त करना चाहेंगे, आपको मुक्त कर देंगे। आप उनके गुलाम हैं। आप का स्वतन्त्र कर्तृत्व कुछ अर्थ नहीं रखता। किन्तु जब यह माना जाता है कि आपने कर्मों को बाँध रखा है, तो बात कुछ और तरह से विचारने की हो जाती है। इस से यह तो सिद्ध हो जाता है कि कर्म की ताकत से आपकी ताकत ज्यादा है। बँधने वाला गुलाम
विद्वत् खण्ड / १५
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