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________________ अनुभूति ही है । क्योंकि अनेकता ज्ञानके लिए एकताका ज्ञान अपेक्षित है। "गो" व्यक्तिले ज्ञानके लिए गो व्यक्तियोंमें समवेत "गोत्व" जातिका ज्ञान अनिवार्य है । जहाँ हमारे व्यावहारिक ज्ञानका आधार भेदमें अभेद, अनेकतामें एकताकी अनुभूति है, वहाँ शास्त्रीय ज्ञानका आधार तथा लक्ष्य भी भेदमें अभेद, इसमें अद्वैत को अनुभूति ही है। कुशल वैज्ञानिक अनेक प्रकारके पदार्थोंका निरीक्षण करके उनमें कुछ समान तत्त्वोंका अनुसंधान करता है, तथा उनका वर्गीकरण करता है, पुनः अनेक वर्गों या श्रेणियोंको भी एक बड़े तथा व्यापक वर्ग या श्रेणीमें निबद्ध करता है, इस प्रकार क्रमशः उच्च, उच्चतर वर्गीकरण ( classibication) द्वारा वह अनेकतासे एकता की ओर अग्रसर होता चला जाता है । और उस एकताको प्राप्त करके सारी अनेकताओं में उसी एकताका दर्शन करता है । पहले वैज्ञानिकों के अनुसार सृष्टिके मूल तत्त्वों की संख्या अनेक थी, किन्तु यह संख्या अब घटते पटते एकत्व की ओर जा रही है । पहले वे द्रव्य (matter) और शक्ति ( energy ) को दो भिन्न पदार्थ समझते थे, किन्तु अब द्रव्यको शक्ति का ही परिवर्तित रूप समझा जाने लगा है। अब भौतिक विज्ञानके अनुसार भी शक्तिके भिन्न भिन्न रूप एक दूसरेमें परिवर्तित किए जा सके हैं। शब्द विद्युत्धारामें और फिर विद्युत्धारा शब्दमें परिवर्तित हो जाती है । इस प्रकार भौतिक विज्ञान भी उत्तरोत्तर भौतिक अद्वैतवाद की ओर बढ़ रहा है । दर्शनशास्त्र की प्रगति - द्वैतसे अद्वैत की ओर इसी प्रकार दर्शन अर्थात् आध्यात्मिक विज्ञान की प्रगति भी द्वैतसे आध्यात्मिक अद्वैतवाद की ओर ही अग्रसर हुई। नैयायिकोंने विश्वको सोलह पदार्थों में बांटा, वैशेपिकोंने सात पदार्थोंमें, परन्तु सांपोंने प्रकृति (अव्यक्त, प्रधान) तथा पुरुष ये दो ही मूल तत्त्व माने । महत् (बुद्धि), अहंकार आदि शेष पदार्थोंको सांख्यने अव्यक्त प्रकृति के ही व्यक्त विकार माने --- किन्तु वेदान्त और आगे बढ़ा, और इस अखिल प्रपंचके मूलमें एक अद्वैत, अखण्ड-चेतन तत्वको ही स्वीकार किया। इतना ही नहीं इससे आगे बढ़कर व्यक्त जगत् की केवल व्यावहारिक सत्ता ही स्वीकार की गई, पारमार्थिक सत्ता केवल आत्मा या ब्रह्म की ही मानी गई, और सारी सृष्टिको उस ब्रह्म का, उस अद्वैत चेतन तत्त्वका ही विवर्त (अविद्यमान प्रतीतिमात्र) मान लिया गया । इस प्रकार भौतिक विज्ञान तथा दर्शन दोनों का ही चरम लक्ष्य उत्तरोत्तर भेदमें अभेद, द्वैत में अद्वैती अनुभूति ही रहा है। अद्वैत की अनुभूति से ही परम शान्तिलाभ यह अभेदानुभूति ही मानव हृदय की चिरन्तन साध है, और यही वस्तुतः तत्त्वज्ञान है। हमारी सारी चेष्टाओंका पर्यवसान इसी इनमें है । अभेद की इस अनुभूतिके विना मानवको चैन नहीं । जब तक मनुष्यको इस अद्वैत तत्त्व की अनेकता में एकता की सच्ची अनुभूति नहीं होती तभी तक उसका जीवन मोह 7 7 और शोक से व्याप्त रहेगा। एकत्व की अनुभूति होने पर ही मोह और शोकके द्वन्द्वका नाश सम्भव है।" अनेकता में एकता का, विभक्तमें अविभक्तका साक्षात्कार ही सच्चा सात्त्विक ज्ञान है । ( भ० ग ० १८-२० ) विभक्त में अविभक्त की अनुभूति ही जीवनमें परम शान्तिका लाभ सम्भव है। वस्तुतः तो एकत्व १. तु० " सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते" (भ० मी० ४-२३) २. तु० " तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः" ईशोप० ७ २. तु० - " सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्त विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम् ॥ भ० गी० १८-२० २९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211186
Book TitleDwait Adwit ka Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandswarup Gupt
PublisherZ_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf
Publication Year1977
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size666 KB
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