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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य आवश्यक नियुक्ति नामक ग्रन्थ में जिनमूर्ति के भावपूर्वक वीतराग प्रभु की द्रव्यपूजा और भावपूजा करने से भवभ्रमण दर्शन करने के संबंध में कहा गया है कि श्रमण भगवान महावीर सर्वथा दूर होता है, इसके समर्थन में चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहु प्रभु ने गौतमस्वामी महाराज की शंका का निवारण करने के स्वामीजी महाराज ने श्री आवश्यक निर्यक्ति में कहा हैलिए कहा कि "जो भव्यात्मा अपनी आत्मलब्धि से श्री अष्टापद अकसिणपवत्तमाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। तीर्थ पर चढ़कर श्री भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाई गई और वहाँ संसारपयणु करणे, दव्वत्थए कूवदिढतो।। स्थापित की हुई जिनमूर्तियों का भावोल्लासपूर्वक दर्शन करेगा, वह इसी भव में अवश्य मोक्ष पायेगा। यह सुनकर इस बात का ... जैसा कुआ खोदते समय तो बहुत परिश्रम होता है और निर्णय करने के लिए गौतम स्वामी गणधर स्वयं स्वात्मलब्धि बहुत प्य बहुत प्यास लगती है, किन्तु कुए में पानी निकल जाने पर सदैव द्वारा अष्टापद तीर्थ पर चढ़े तथा वे 'जग चिन्तामणि' नूतन रचना के लिए प्यास बुझाने का प्रबंध हो जाना है, वैसे ही भगवान की द्वारा जिनेश्वर देवों की चैत्यवन्दना करके और यात्रा करके उसी द्रव्यपूजा से भवभ्रमण समाप्त हो जाता है और मोक्षसुख की भव में सकल कर्मों का क्षय करके मुक्त हो गए। प्यास भी शान्त हो जाती है। स्नात्रपूजा श्री जिनेश्वरदेव का अभिषेक है। तीर्थंकरों के पाँचों जिनमर्तिपजा महान फलदायक शभ क्रिया है। सपात्रदान. कल्याणक इन्द्रादि देव मेरु पर्वत पर स्नात्रपजा से (जिनेश्वर के स्वामिवात्सल्य और धर्मस्थान के निर्माण, जिनप्रतिमा-पूजन अभिषेक द्वारा) करते हैं। स्नात्रपूजा से विचारों की शुद्धि होती है। इत्यादि शुभ प्रवृत्तियों में आरम्भ-समारम्भ का सामान्य दोष श्री सूत्रकृतांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में छठे अध्ययन होने पर भी आत्मा के अध्यवसाय शुभ रहते हैं। अत: वहाँ की वृत्ति-टीका में कहा गया है कि मगध देश के सम्राट् श्रेणिक पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, साथ ही कर्मनिर्जरा का भी महाराज के सुपुत्र श्री अभयकुमार मंत्री द्वारा भेजी गई श्री ऋषभदेव जो जीव को अपूर्व लाभ मिलता है। भगवान की मूर्ति के दर्शन से ही अनार्यदेश में उत्पन्न हुए श्री 'श्री जिनेश्वर भगवान की यथाशक्ति सेवा-भक्ति करना आर्द्रकुमार ने जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया और वे आर्य देश में मेरा परम कर्तव्य है प्रभु की प्रशान्त मुद्रा को देखकर ऐसी शुभ आकर वैराग्य दशा में लीन हुए। भावना अन्तःकरण में उत्पन्न होती है कि जैसे मेरू पर्वत पर ले कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद हेमचंद्र सरीश्वरजी महाराज ने जाकर इन्द्र आदि ने प्रभु का अभिषेक किया, स्नात्रपूजा की, योगशास्त्र में कहा है कि श्री श्रेणिक महाराज ने श्री जिनेश्वर देव वैसे ही मैं भी उत्तम अभिषेक इत्यादि का अनुपम लाभ लेकर की प्रतिमा की सम्यक् आराधना से तीर्थंकर गोत्र बाँधा था। भगवान की स्नात्रपूजा करूँ, अष्टप्रकारी पूजा करूँ। श्री आवश्यक वृत्ति में ऐसा वर्णन है कि श्री जिनेश्वर कुछ लोग यह शंका करते हैं कि जल, चंदन, पुष्प, धूप, भगवान की स्नात्रपूजा पुण्य का अनुबंध कराने वाली होती है दीप, फल इत्यादि से प्रभु की पूजा करने में हिंसा है, क्योंकि ये तथा निर्जरा रूप फल भी देने वाली होती है। सब सचित्त द्रव्य हैं। हिंसा में धर्म नहीं हो सकता, इसलिए परुषादानीय श्री स्थंभन पार्श्वनाथ भगवान की भव्य मति मूतिपूजा का अचत नहीं कहा जा सकता। के स्नात्र जल (प्रक्षाल-जल) से नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव इसका समाधान यह है कि संसारी प्राणियों को इस प्रकार सूरीश्वरजी महाराज का गलण कोढ़ का रोग दूर हो गया। की हिंसा तो कदम-कदम पर लगती है, इसीलिए ज्ञानी महापुरुषों राजा भोज ने चमत्कार की दृष्टि से जैनाचार्य श्रीमान तंगाचार्य ने कहा है कि विषय और कषाय आदि की प्रवृत्ति करते हए सूरीश्वरजी महाराज के शरीर पर लोहे की ४४ बेडियाँ डालीं। श्री अन्य जीवों को दुःखहानि हो, उसी को हिंसा कहते हैं। हिंसा दो भक्तामर स्तोत्र के ४४ श्लोकों की रचना द्वारा भगवान आदिनाथ प्रकार की है। द्रव्यहिंसा और भावहिंसा, द्रव्यहिंसा में होने वाली की स्तति और उदघोषणा से बेडियाँ ट गई जिससे जिनशासन स्थावर जीवों की हिंसा को भावहिंसा नहीं कह सकते, क्योंकि की प्रभावना में अनुपम वृद्धि हई। इस भक्तामर स्तोत्र में बिम्ब भगवान की पूजा से आत्मगुणों की वृद्धि रूप भावदया होती है. शब्द का बहुप्रयोग है। और भावदया को तो मोक्ष का कारण कहा गया है। bratoriibraibarbridroidAirbird-GoridrordNGA60-60- २२drarardinirbrowdroprabard-ordGuidroidroid-ordar Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.211178
Book TitleDevarchan aur Snatra puja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendravijay Gani
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size838 KB
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