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________________ रत्नचन्द अग्रवाल अध्यक्ष, पुरातत्त्व संग्रहालय-विभाग, उदयपुर देबारी के राजराजेश्वर मंदिर की अप्रकाशित प्रशस्ति मेवाड़नरेश महाराणा राजसिंह द्वितीय ने केवल सात वर्ष (संवत् १८१२ से १८१७) राज्य किया था उनके राज्यकाल का संवत् १८१२ का लेख उदयपुर के सांध्यगिरि मठ के पास शिवालय में लगा है और दूसरा लेख संवत् १८१७ का है जो उदयपुर के जगदीश मंदिर के पास एक सुरभि-स्तम्भ पर खुदा है (रिसर्चर-राजस्थान पुरातत्त्व विभाग की पत्रिका, वर्ष-१,अंक १, पृ० २६-३२). इसके बाद राजसिंह द्वितीय का ही भाई अरिसिंह द्वितीय शासक बना. उसके राज्यकाल में राजसिंह द्वितीय की माता बस्तकुंवरी (जो झाला वंश की थी) ने अपने पुत्र राजसिंह की मृत्यु हो जाने के कारण उसके सुकृत हेतु उदयपुर नगर से ८ मील दूर देबारी (उदयपुर घाटी का प्रवेश) के द्वार के सामने ही राजराजेश्वर मंदिर, वापी तथा पास की धर्मशाला का निर्माण कराया था. उसकी प्रतिष्ठा श्रावणादि वि० सं० १८१६ (चैत्रादि १८२०) शक संवत् १६८५ वैशाख सुदी ८ गुरुवार (जीव) को होकर प्रशस्ति रची गई थी. ६८ श्लोकों की यह बृहत प्रशस्ति शिला पर अद्यावधि उत्कीर्ण न हो सकी. उसकी एक प्रति की प्रतिलिपि मुझे स्वर्गीय पं० गो० ला० व्यास जी के सौजन्य से प्राप्त हुई है. यह राजसिंह की माता की कृतियों, उसके मातृपक्ष के वंश वृक्ष और तत्कालीन इतिहास के लिये परम उपयोगी है. माननीय ओझा जी ने इसकी एक प्रतिलिपि श्री विष्णुराम भट्ट मेवाड़ा के संग्रह में देख कर उसका सारांश भी उदयपुर राज्य के इतिहास' (भाग २, पृ० ६६३) में प्रकाशित किया था. प्रस्तुत निबन्ध में श्री व्यास' जी द्वारा प्राप्त प्रतिलिपि को तनिक विवेचनादि सहित विद्वद्वर्ग के अध्ययनार्थ सर्वप्रथम प्रकाशित किया जावेगा. इस बृहत् प्रशस्ति के कुल ६८ श्लोक हैं तथा भाषा संस्कृत है. प्रारंभ में 'गणपति' बन्दना के उपरान्त प्रशस्तिकार 'सोमेश्वर' का उल्लेख है जिसने राजसिंह द्वितीय की माता के आदेशानुसार शिवालय व वापी की यह प्रशस्ति रची थी (श्लोक १). राजसिंहराज्याभिषेक काव्य की रचना भी भट्ट रूप जी के सुपुत्र इसी सोमेश्वर ने की थी (ओझा, उपर्युक्त पृ० ६४४ पाद टिप्पण २). तदनन्तर मेवाड़ के उदयपुर नगर के संस्थापक (श्लोक ७) महाराणा उदयसिंह प्रथम से लेकर राजसिंह द्वितीय तक का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है. आठवें श्लोक में उदयपुर को शक्रपुरी कहा है. राणा प्रताप ने यवनों (मुसलमानों) को मारा था (श्लोक ११), वीर अमरसिंह प्रथम ने राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति की थी (श्लोक १२), उसका पुत्र कर्णसिंह था (श्लोक १३). उसके पुत्र जगतसिंह ने विष्णुमंदिर अर्थात् जगदीशमंदिर, षोडश महादान सम्पन्न कर मान्धातातीर्थ पर यश प्राप्त किया (श्लोक १४-१५). उसका पुत्र राजसिंह प्रथम था (श्लोक १६) जिसने समुद्र के समान बन्ध (अर्थात् राजसमुद्र बांध बंधाया. उसके पुत्र जयसिंह प्रथम ने भी तथैव बांध बंधाया (अर्थात् जयसमुद्र, श्लोक १७) उसके पुत्र अमरसिंह द्वितीय ने उदयपुर के राजप्रासादों में वृद्धि की १. झालावाड़ संग्रहालय के संस्थापक व अध्यक्ष. Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211175
Book TitleDebari ke Rajrajeshwari Mandir ki Aprakashit Prashasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Agarwal
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirth
File Size675 KB
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