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________________ दिगम्बर जैन पुराण साहित्य भगवान् आदिनाथ जब ब्राह्मी सुन्दरी पुत्रियों और भरत बाहुबली आदि पुत्रों को लोककल्याणकारी विविध विद्याओं की शिक्षा देते है तब ऐसा प्रतीत होता है मानों एक सुन्दर विद्यामंदिर है और उसमें शिक्षक के स्थानपर नियुक्त भगवान् शिष्य मण्डली को शिक्षा दे रहे हैं । कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से त्रस्त मानव समाज के लिये जब भगवान् सान्त्वना देते हुए षट्कर्म की व्यवस्था भारत भूमिपर प्रचलित करते हैं, देश, प्रदेशनगर, स्व और स्वामि आदि का विभाग करते हैं तब ऐसा जान पडता है कि भगवान् संत्रस्त मानव समाज का कल्याण करने के लिये स्वर्ग से अवतीर्ण हुए दिव्यावतार ही है । गर्भान्वय, दीक्षान्वय, कन्वय आदि क्रियाओं का उपदेश देते हुए भगवान् जहां जनकल्याणकारी व्यवहार धर्म का प्रतिपादन करते हैं वहां संसार की माया ममता से विरक्त कर इस मानव को परम निर्वृति की ओर जाने का भी उन्होंने उपदेश दिया है सम्राट् भरत दिग्विजय के बाद आश्रित राजाओं को जिस राजनीति का उपदेश देते हैं वह क्या कम गौरव की बात है ? यदि आज के जननायक उस नीति को अपना कर प्रजा का पालन करें तो यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि सर्वत्र शान्ति छा जावे और अशान्ति के काले बादल कभी के क्षत-विक्षत हो जावें । अन्तिम पर्वों में गुणभद्राचार्य ने जो श्रीपाल आदि का वर्णन किया है उसमें यद्यपि कवित्व की मात्रा कम है तथापि प्रवाहबद्ध वर्णन शैली पाठक के मनको विस्मय में डाल देती है । कहने का तात्पर्य यह है कि जिनसेनस्वामी और उनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने इस महापुराण के निर्माण में जो कौशल दिखाया है वह अन्य कवियों के लिये ईर्ष्या की वस्तु है । यह महापुराण जैन पुराण साहित्य का शिरोमणि है । इसमें सभी अनुयोगों का विस्तृत वर्णन है । आचार्य जिनसेन से उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने इसे बडी श्रद्धा की दृष्टि से देखा है । आगे चलकर यह ' आर्ष ' नाम से प्रसिद्ध हुआ है और जगह जगह ' तदुक्तं । आर्षे इन शब्दों के साथ इसके श्लोक उद्धृत मिलते हैं । इसके प्रतिपाद्य विषय को देखकर यह कहा 9 जा सकता है कि जो अन्यत्र ग्रन्थों में प्रतिपादित है वह इसमें प्रतिपादित है, जो इस में प्रतिपादित नहीं है। वह कहीं भी प्रतिपादित नहीं है । १८२ जिनसेनाचार्य ने पीठिकाबन्ध में जयसेन गुरु की स्तुति के बाद परमेश्वर कवि का उल्लेख किया है और उनके विषय में कहा है ' वे कवि परमेश्वर लोक में कवियों के द्वारा पूजने योग्य हैं जिन्होंने कि शब्द और अर्थ के संग्रह रूप समस्त पुराण का संग्रह किया था । इन परमेश्वर कवि ने गद्य में समस्त पुराणों की रचना की थी, उसका आधार लेकर जिनसेनाचार्य ने महापुराण की रचना की है।' इसकी महत्ता बतलाते हुए गुणभद्राचार्य ने कहा है 6 यह आदिनाथ का चरित कवि परमेश्वर के द्वारा कही हुई गद्य कथा के आधार से बनाया गया है । इसमें समस्त छन्द तथा अलंकारों के लक्षण हैं, इसमें सूक्ष्म अर्थ और गूढ पदों की रचना है, वर्णन की अपेक्षा अत्यन्त उत्कृष्ट है, समस्त शास्त्रों को उत्कृष्ट पदार्थों का साक्षात् करानेवाला है, अन्य काव्यों को तिरस्कृत करता है, श्रवण करने योग्य है, व्युत्पन्न बुद्धिवाले पुरुषों के द्वारा ग्रहण करने योग्य है, मिथ्या कवियों के गर्व को नष्ट करनेवाला है और अत्यन्त सुन्दर है । इसे सिद्धान्तग्रन्थों की टीका करनेवाले तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211165
Book TitleDigambar Jain Puran Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size874 KB
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