________________ दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म 521 मनुष्य का आवश्यक सद्गुण है। बुद्ध का कथन है कि 'सन्तोष ही अद्रोह, आर्जव एवं भृत्य-मरण इन नौ सद्गुणों का विवेचन है। परम धन है।' गीता में कृष्ण कहते हैं- 'सन्तुष्ट व्यक्ति मेरा प्रिय है।'४८ वामनपुराण में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, क्षान्ति, दम, शम, अकार्पण्य, शौच और तप इन दस सद्गुणों का विवेचन है। विष्णु 10. ब्रह्मचर्य धर्मसूत्र में 24 गुणों का वर्णन है, जिनमें अधिकांश यही हैं। महाभारत ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन महाव्रतों एवं अणुव्रतों के आदिपर्व में धर्म की निम्न दस पत्नियों का उल्लेख है-कीर्ति, के सन्दर्भ में किया गया है। श्रमण के लिए समस्त प्रकार के मैथुन लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा और मति।५४ का त्याग आवश्यक माना गया है। गृहस्थ-उपासक के लिए स्वपत्नी- इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में भी धर्म की श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, सन्तोष में ही ब्रह्मचर्य की मर्यादा स्थापित की गयी है। विषयासक्ति तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, हवि और मूर्ति इन चित्त को कलुषित करती है, मानसिक शान्ति भंग करती है, एक प्रकार तेरह पत्नियों का उल्लेख है।५५ वस्तुत: इन्हें गुण, धर्म की पत्नियाँ के मानसिक तनाव को उत्पन्न करती है और शारीरिक दृष्टि से रोग कहने का अर्थ इतना ही है कि इनके बिना धर्म अपूर्ण रहता है। इसी का कारण बनती है। इसलिए यह माना गया कि अपनी-अपनी मर्यादा प्रकार श्रीमद्भागवत में धर्म के पुत्रों का भी उल्लेख है। धर्म के पुत्र के अनुकूल गृहस्थ और श्रमण को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। हैं-शुभ, प्रसाद, अभय, सुख, मुह, स्मय, योग, दर्प, अर्थ, स्मरण, बौद्ध परम्परा में ब्रह्मचर्य-बौद्ध परम्परा में भी ब्रह्मचर्य धर्म क्षेम और प्रश्रय।५६ वस्तुत: सद्गुणों का एक परिवार है और जहाँ का महत्त्व स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है। उसमें भी श्रमण साधक एक सद्गुण भी पूर्णता के साथ प्रकट होता है वहाँ उससे सम्बन्धित के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य और गृहस्थ साधक के लिए स्वपत्नी-सन्तोष दूसरे सद्गुण भी प्रकट हो जाते हैं।. की मर्यादाएँ स्थापित की गयी हैं। 49 / / गीता में ब्रह्मचर्य-गीता में ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप कहा गया बौद्ध धर्म और दस सद्गुण है।५० परमतत्त्व की उपलब्धि के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक माना जैसा कि हमने देखा जैन धर्म सम्मत क्षमा आदि दस धर्मों (सद्गुण) गया और यह बताया गया है कि जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर की अलग-अलग चर्चा उपलब्ध हो जाती है, किन्तु उसमें जिन दस मेरी उपासना करता है वह शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है।५१ धर्मों का उल्लेख हुआ है, इनसे भिन्न हैं। अंगुत्तरनिकाय में सम्यक् दृष्टि, सम्यक्-संकल्प, सम्यक्-वाक्, सम्यक्-कर्मान्त, सम्यक्-आजीव, वैदिक परम्परा में दस धर्म (सद्गुण) सम्यक्-व्यायाम, सम्यक्-स्मृति, सम्यक्-समाधि, सम्यक्-ध्यान और वैदिक परम्परा में भी थोड़े-बहुत अन्तर से इन सद्गुणों का विवेचन सम्यक्-विमुक्त ये दश धर्म बताये गये हैं।५७ वस्तुत: इसमें अष्टांग पाया जाता है। हिन्दू धर्म में हमें दो प्रकार के धर्मो का विवेचन उपलब्ध आर्य मार्ग में सम्यक्-ध्यान और सम्यक्-विमुक्ति ये दो चरण जोड़कर होता है-(१) सामान्य धर्म और (2) विशेष धर्म। सामान्य धर्म वे दस की संख्या पूरी की गई है। यद्यपि अशोक के शिलालेखों में हैं जिनका पालन सभी वर्ण एवं आश्रमों के लोगों को करना चाहिए, जिन नौ धर्मों या सद्गुणों की चर्चा की गई है, वे जैन परम्परा और जबकि विशेष धर्म वे हैं जिनका पालन वर्ण विशेष या आश्रम विशेष हिन्दू परम्परा के काफी निकट आते हैं। वे गुण निम्न हैं—दया, उदारता, के लोगों को करना होता है। सामान्य धर्म की चर्चा अति प्राचीन काल सत्य, शुद्धि (शौच), भद्रता, शान्ति, प्रसन्नता, साधुता और से होती आयी है। मनु ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रिय- आत्मसंयम।८ निग्रह इन पाँच को सभी वर्णाश्रम वालों का धर्म बताया है।५२ प्रसंगान्तर इस प्रकार स्पष्ट होता है कि जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों धर्मों से उन्होंने इन दस सामान्य धर्मों की भी चर्चा की है-धृति, क्षमा, में वर्णित इन दशविध धर्मों में क्रम और नामों के किञ्चित् पारस्परिक दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध।५३ मतभेद के अतिरिक्त मूलभूत सैद्धान्तिक-दृष्टि से कोई विशेष अन्तर इस सूची में क्षमा, शौच, और सत्य ही ऐसे हैं जो जैन परम्परा के नहीं स्पष्ट होता है। इन सद्गुणों के पालन में प्रमुखता किसे दी जाये, इस नामों से पूरी तरह मेल खाते हैं, शेष नाम भिन्न हैं। महाभारत के सम्बन्ध में तीनों धर्मों के विचारकों में मतभेद हो सकता है, जो वस्तुतः शान्तिपर्व में अक्रोध, सत्यवचन, संविभाग, क्षमा, प्रजनन, शौच, देश, काल और परिस्थिति के अधीन होने के कारण स्वाभाविक भी है। , संदर्भ : 1. आचाराङ्ग, संपा- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1980, 1/6/5 / 2. स्थानाङ्ग, संपा०- मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1981, 10/14 / / समवायाङ्ग, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1982, 10/1 / 4. तत्त्वार्थसूत्र, संपा०- जुगल किशोर मुख्तार, वीर सेवा मन्दिर, सहारनपुर, 1944, 9/6 / 5. दशवैकालिकसूत्र, संपा० - मधुकर मुनि प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1985, 8/38 / 6. वही, 8/39 / / आवश्यकसूत्र-क्षमापणा पाठ, संपा० - मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1985 / उपासकदशाङ्गसूत्र, संपा०- मधुकर मुनि, प्रका०- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर 1980,1/84 / 8. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org