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ग्रंथारम्भ में उग्रादित्य ने लिखा है
"महषि लोग स्वाध्याय को ही तपस्या का मूल मानते हैं । अत: वैद्यों के प्रति वात्सल्यभाव से ग्रन्थ रचना करने को मैं प्रधान तपश्चर्या मानता हूं। अतः मैंने इस पर कल्याणकारी तपश्चरण ही यत्नपूर्वक प्रारम्भ किया है।" ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय
जैन तीर्थकरों की वाणी को विषयानुसार बाँटकर उनके बारह विभाग किये गये हैं। इन्हें आगम के द्वादश-अंग' कहते है। इनमें बारहवां 'दष्टिवाद' नामक अंग है, उसके ५ भेदों में एक भेद 'पूर्व' या 'पूर्वगत' कहलाता है। पूर्व के भी १४ भेद हैं। इनमें 'प्राणावाय' नामक एक भेद है। इसमें विस्तारपूर्वक अष्टांग आयुर्वेद अर्थात चिकित्सा और शरीर शास्त्र का प्रतिपादन किया गया है। यही इस ग्रन्थ का मूल या प्रतिपाद्य विषय है ।
रामगिरि में श्रीनदि से 'प्राणावाय' का अध्ययन कर उग्रादित्य ने इस ग्रन्थ की रचना की थी।
प्राणावाय सम्पूर्ण मल का प्राचीनतम साहित्य अर्धमागधी भाषा में निर्मित हुआ था। ध्यान रहे कि जैन परम्परा का समय आगम-साहित्य महावीर की मूल भाषा अर्धमागधी में ही रचा गया था। हर प्रकार से सुखकर इस शास्त्र प्राणावाय के उस विस्तृत विवेचन को यथावत संक्षेप रूप में संस्कृत भाषा में उग्रादित्य ने इस ग्रन्थ में वणित किया है। अर्धमागधी भाषा उनके समय तक संभवतः क प . चलित हो चकी थी। देशभर में सर्वत्र संस्कृत की मान्यता और प्रचलन था। अतः उग्रादित्य को अपने ग्रंथ को सर्वलोक-भोग्य और सम्मान्य बनाने हेतु संस्कृत में रचना करनी पड़ी।
स्वयं ग्रंथकार की प्रशस्ति के आधार पर-"यह कल्याणकारक नामक ग्रंथ अनेक अलंकारों से युक्त है, सून्दर शब्दों से ग्रथित है. सुनने में सुखकर है, अपने हित की कामना करने वालों की प्रार्थना पर निर्मित है, प्राणियों के प्राण, आयु, सत्त्व, वीर्य, बल को उत्पन्न करने वाला और स्वास्थ्य का कारणभत है। पूर्व के गणधरादि द्वारा प्रतिपादित 'प्राणावाय' के महान शास्त्र रूपी निधि से उदभत और अच्छी यक्तियों या विचारों से युक्त है, जिनेन्द्र भगवान् (तीर्थकर) द्वारा प्रतिपादित है । ऐसे शास्त्र को प्राप्त कर मनुष्य सुख प्राप्त करता है।"
"जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यह शास्त्र विभिन्न छंदों (वृत्तों) में रचित प्रमाण, नय और निक्षेपों का विचार सार्थक रूप से दो बजार पाँच सौ तेरासी छंदों में रचा गया है और जब तक सूर्य, चन्द्र और तारे मौजूद हैं तब तक प्राणियों के लिए सुखसाधक बना रहेगा ।
१.
२.
क.का.१-१३
स्वाध्यायमाहुरपरे तपसां हि मुलं मन्ये च वैद्यवरवत्सलताप्रधानम् ।
तस्मात्तपश्चरणमेव मया प्रयत्नादारभ्यते स्वपरसौरव्य विधायि सम्यक ।। क. का. प. २५-५४
'सर्वार्धाधिकभागधीयविल सद्भाषाविशेषोज्ज्वलात् । प्राणावाय महागमादवितयं संग ह्य संक्षेपतः ।। उग्रादित्यगुरुगुणरुद्भासि सौख्यास्पदं ।
शास्त्र संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः ।। क. का, २५-५५-५६.
सालंकारं सुशब्दं श्रवणसुख मथ प्राथितं स्वार्थ विदिभ । प्राणायुस्सत्त्ववीर्यप्रकटबलकरं प्राणिनों स्वस्थ हेतुम् ।। नियुद्भूत विचारक्षममिति कुशला: शास्त्रमेतद्ययावत् । कल्याणाख्यं जिनेन्द्र विरचितमधिगम्याश सौख्यं लभते ।।५।। अध्यधं द्विसहस्रकरपि तथाशीतित्रयरसोत्तर वृत्तसंचारितैरिहाधिकमहावृत्तजिनेंद्रोदितः। प्रोक्तं शास्त्रमिदं प्रमाणनयनिक्षेपं विचार्यार्थव ज्जीयात्तद्रविचंद्रतारकमल सौख्यास्पदं प्राणिनाम् ।।५६।।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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