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सहेतुकास्सर्वविकारजातास्तेषां विवेको गुणमख्यभेदात् । हेत : पुनः पूर्व कृत स्वकर्म ततः परे तस्य विशेषणानि ॥१६॥ स्वभावकालग्रहकर्मदैव विधात पुण्येश्वरभाग्यपापम् । विधिः कृतांतो नियतिर्यमश्च पुराकृतस्यैव विशेषसंज्ञा ।।१२।। न भतकोपान्न च दोषकोपान्न चैव सांवत्सरिकोपरिष्टात । ग्रहप्रकोपात्प्रभवंति रोगाः कर्मोदयोदोरणभावतस्ते ॥१३॥
(क. का, प-७, ११-१३) शरीर में सब रोग हेत के बिना नहीं होते। उन हेतुओं को गौण और मुख्य भेद से जानने की आवश्यकता होती के रोगों का मख्य हेत पर्वकृत कर्म है । शेष सब उसके विशेषण अर्थत् निमित्तकारण है या गौण हैं।
'स्वभाव, काल, ग्रह, कर्म, दैव, विधाता, पुण्य, ईश्वर, भाग्य, पाप, विधि, कृतांत, नियति, यम-ये सब पर्वकृत कर्म के ही विशेष नाम हैं।' न पथ्वी आदि महाभूतों के कोप से, न दोषों के कोप से, न वर्षफल के खराब होने से और रोप मे न दोषों के कोप से, न वर्षफल के खराब होने से और न ग्रहों (शनि, राहु आदि) के
दो कोप से रोग उत्पन्न होते हैं । अपित, कर्म के उदय और उदीरण से ही रोग उत्पन्न होते हैं।"
फिर चिकित्सा' क्या है ? और इसका प्रयोजन क्या है ? इन प्रश्नों का भी आचार्य उग्रादित्य ने रोग-निदानान रूपी उत्तर प्रस्तुत किया है। यथा 'कर्म की उपशमनक्रिया को चिकित्सा या रोगशांति कहते हैं।
तस्मात्स्वकर्मोपशमक्रियाया व्याधिप्रशांति प्रवदंति तज्ज्ञाः ।"
(क-का.,७/१४) अपने कर्म का पाक' दा प्रकार से होता है-१. समय पर स्वयं पकना, २. उपाय द्वारा पकना। इनकी सुन्दर विवेचना आचार्य ने की है
स्वकर्मपाकोद्विविधो यथावदुपायकालक्रमभेदभिन्नः ॥१४॥ उपायपाकोवरघोरवीरतपः प्रकारस्सुविशुद्धमार्गः । सद्य: फलं यच्छति कालपाकः कालांतराद्यः स्वयमेव दद्यात् ॥१५॥ यथा तरूणां फलपाकयोगो मतिप्रगल्भैः पुरुष विधेयः । तथा चिकित्सा प्रविभाग काले दोषप्रकोपो द्विविधः प्रसिद्धः ।।१६।। आमध्नसदभेषजसंप्रयोगादुपायपाकं प्रवदंति तज्ज्ञाः ।
कालांतरात्कालवियाकमाहुर्मू गद्विजानाथजनेषु दृष्टम् ।।१७।।
(१) उपायपाक-श्रेष्ठ, धीर, वीर, तपस्वादि विशुद्ध उपायों से कर्म का जबरन उदय कराना (उदयकाल न होने पर भी) इसे 'उपायपाक' कहते हैं जिससे वह तत्काल फल देता है।
(२) कालपाक---कालांतर में यथा समय जो पाकर स्वयं उदय में आकर फल देता है। वह 'कालपाक' है।
जिस प्रकार वृक्ष के फल स्वयं पकते हैं और बुद्धिमान व्यक्तियों द्वारा पकाये भी जाते हैं उसी प्रकार दोषों का पाक भी उपाय (चिकित्सा)' और 'कालक्रम' से दो प्रकार से पक्व होते हैं । दोष या रोग के आमत्व को औषधियों द्वारा पकाना 'उपायपाक' कहलाता है और कालांतर में (अपने पाक काल में) स्वयं ही (बिना किसी औषधि के) पकना 'कालपाक' कहलाता है।
इसलिए लिखा है-'जीव (आत्मा) अपने कर्म से प्राप्त होने वाले पापपुण्य रूपी फल को बिना प्रयत्न के अवश्य ही प्राप्त करता है। पाप और पुण्य के कारण ही दोषों का प्रकोप और उपशम होता है। क्योंकि ये दोनों ही मुख्य कर्म हैं। अर्थात रोग के प्रति दोप प्रकोप व दोषशमन गौण (निमित्त ) कारण हैं ।
जीवस्स्वकर्माजितपुण्यपापफलं प्रयत्नेन विनापि भुक्ते । दोषप्रकोपोपशमौ च ताभ्यामुदाहृतौ हेतुनिबंधनौ तौ ।। (क. का. ७।१०)
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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