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________________ प्रमाण बतलाया गया है । अर्थात् आगममें ऐसा ही बताया है कि द्रव्यस्त्री पर्यायमें सम्यग्दृष्टि नहीं जाता है।" "यदि ९३वा सूत्र भावस्त्रीका विधायक होता तो फिर सम्यग्दर्शन क्यों नहीं होता, यह शंका उठायी ही नहीं जा सकती, क्योंकि भावस्त्रीके तो सम्यग्दर्शन होता ही है । परन्तु द्रव्यस्त्रीके लिए शंका उठाई है। अतः द्रव्यस्त्रीका ही विधायक ९३वा सूत्र है, यह बात स्पष्ट हो जाती है।" बहुत ही स्खलित और भूलोंसे भरा हुआ है । 'संजद' पदके विरोधी क्या उक्त विवेचनसे सहमत हैं ? यदि नहीं, तो उन्होंने अन्य लेखोंकी तरह उक्त विवेचनका प्रतिवाद क्यों नहीं किया ? हमें आश्चर्य है कि श्री पं० वर्धमानजी जैसे विचारक तटस्थ विद्वान् पक्ष में कैसे बह गये और उनका पोषण करने लगे ? पं० मक्खनलालजीकी भूलोंका आधार भावस्त्रीमें सम्यक् दृष्टिकी उत्पत्तिको मानना है जो सर्वथा सिद्धान्तके विरुद्ध है। सम्यग्दृष्टि न द्रव्यस्त्रीमें पैदा होता है और न भावस्त्रीमें, यह हम पहले विस्तारसे सप्रमाण बतला आये हैं । आशा है पंडितजी अपनी भूलका संशोधन कर लेंगे । और तब वे प्रस्तुत ९३वें सूत्रको भावस्त्रीविधायक ही समझेंगे। दूसरी शंका यह उपस्थित की गयी है कि यदि इसी आर्ष (प्रस्तुत आगमसूत्र) से यह जाना जाता है कि हुण्डावसर्पिणीमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते तो इसी आर्ष (प्रस्तुत आगम सूत्र) से द्रव्यस्त्रियोंकी मुक्ति सिद्ध हो जाय, यह तो जाना जाता है ? (शंकाकारके सामने ९३वाँ सूत्र 'संजद' पदसे युक्त है और उसमें द्रव्य अथवा भावका स्पष्ट उल्लेख न होनेसे उसे प्रस्तुत शंका उत्पन्न हुई है । वह समझ रहा है कि ९३३ सूत्र में 'संजद' पदके होनेसे द्रव्यस्त्रियोंके मोक्ष सिद्ध होता है। यदि सत्रमें 'संजद' पद न हो, पाँच ही गुणस्थान प्रतिपादित हों तो यह द्रव्यस्त्री मुक्तिविषयक इस प्रकारकी शंका, जो इसी सूत्रपरसे हुई है, कदापि नहीं हो सकती) । इस शंकाका वीरसेन स्वामी उत्तर देते हैं कि यदि ऐसी शंका करो तो वह ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्यस्त्रियाँ सवस्त्र होनेसे पंचम अप्रत्याख्यान (संयमासंयम) गुणस्थानमें स्थित हैं और इसलिये उनके संयम नहीं बन सकता है। इस उत्तरसे भी स्पष्ट जाना जाता है कि सूत्र में यदि पाँच ही गुणस्थानोंका विधान होता तो वीरसेन स्वामी द्रव्यस्त्रीमुक्तिका प्रस्तुत सवस्त्र हेतु द्वारा निराकरण न करते, उसी सूत्रको ही उपस्थित करते तथा उत्तर देते कि द्रव्यस्त्रियोंके मोक्ष नहीं सिद्ध होता, क्योंकि इसी आगमसूत्रसे उसका निषेध है। अर्थात् प्रस्तुत ९३वें सूत्र में आदिके पाँच ही गुणस्थान द्रव्यस्त्रियों के बतलाये हैं, छठे आदि नहीं । वीरसेन स्वामीकी यह विशेषता है कि जब तक किसी बातका साधक आगम प्रमाण रहता है, तो पहले वे उसे हो उपस्थित करते हैं, हेतूको नहीं, अथवा उसे पीछे आगमके समर्थनमें करते हैं। शंकाकार फिर कहता है कि द्रव्य स्त्रियोंके भले ही द्रव्यसंयम न बने, भावसंयम तो उनके सवस्त्र रहनेपर भी बन सकता है, उसका कोई विरोध नहीं है ? इसका वे पुनः उत्तर देते हैं कि नहीं, द्रव्यस्त्रियोंके भावासंयम है, भावसंयम नहीं, क्योंकि भावासंयमका अविनाभावी वस्त्रादिका ग्रहण भावासंयमके बिना नहीं हो सकता है। तात्पर्य यह कि द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादि ग्रहण होनेसे ही यह प्रतीत होता है कि उनके भावसंयम भी नहीं है, भावासंयम ही है क्योंकि वह उसका कारण है । वह फिर शंका करता है 'फिर उनमें चउदह गुणस्थान कैसे प्रतिपादित किये हैं ? अर्थात् प्रस्तुत सूत्रमें 'संजद' शब्दका प्रयोग क्यों किया है ? इसका वीरसेन स्वामी समाधान करते हैं कि नहीं, भावस्त्रीविशिष्ट मनुष्यगतिमें उक्त चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व प्रतिपादित किया है। अर्थात् ९३वें सूत्रमें जो 'संजद' शब्द है वह भावस्त्री मनुष्यको अपेक्षासे है, द्रव्यस्त्री मनुष्य की अपेक्षासे नहीं। इस शंका-समाधानसे तो बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत ९३वें सूत्रमें 'संजद' पद है और वह छठेसे चौदह तकके गुणस्थानोंका बोधक है । और इसलिए वीरसेन स्वामीने उसकी उपपत्ति एवं संगति भावस्त्री मनुष्यको अपेक्षासे बैठाई है, जैसीकि तत्त्वार्थवार्तिककार अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकमें बैठाई है। यदि उक्त सत्रमें 'संजद' पद न हो, तो ऐसी न तो शंका उठती और न - ३७१ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211145
Book Title93 ve Sutra me Sanjad Pad ka Sadbhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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