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________________ वही वहाँ विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला है । अतएव सम्यग्दृष्टि भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य नहीं हो सकता है और इसलिए उसके अपर्याप्त अवस्था में चौथे गुणस्थानकी कदापि सम्भावना नहीं है । यही कारण है कि कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादक ग्रन्थों में अपर्याप्त अवस्था में अर्थात् विग्रहगति में चातुर्थ गुणस्थान में स्त्रीवेदका उदय नहीं बतलाया गया है । सासादन गुणस्थान में ही उसकी व्युच्छित्ति बतला दी गई है, ( कर्मकाण्ड गा० ३१२-३१३-३१९) । तात्पर्य यह कि अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीके भी चौथा गुणस्थान नहीं होता है । इसीसे सूत्रकारने द्रव्य और भाव दोनों तरहकी मनुष्यनियोंके अपर्याप्त अवस्था में पहला, दूसरा ये दो ही गुणस्थान बतलाये हैं उनमें चौथा गुणस्थान बतलाना सिद्धान्तविरुद्ध होनेके कारण उन्हें इष्ट नहीं था । अतः १२ वें सूत्रकी वर्तमान स्थिति में कोई भी आपत्ति नहीं है । पण्डितजी ने अपनी उपर्युक्त मान्यताको जैनबोधकके ९१वें अंक में भी दुहराते हुए लिखा है -- "यदि यह ९२वाँ सूत्र भावस्त्रीका विधायक होता तो अपर्याप्त अवस्था में भी तीन गुणस्थान होने चाहिये, क्योंकि भावस्त्री ( द्रव्य मनुष्य ) के असंयत सम्यग्दृष्टि चौथा गुणस्थान भी होता है ।" परन्तु उपरोक्त विवेचनसे प्रकट है कि पण्डितजीकी यह मान्यता आपत्ति एवं भ्रमपूर्ण है । द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीके भी अपर्याप्त अवस्था में चौथा गुणस्थान नहीं होता, यह ऊपर बतला दिया गया है। और गोम्मटसार जीवकाण्डकी निम्न गाथासे भी स्पष्टतः प्रकट है-हेमिप्पुढवीणं जोइसि-वण- भवण-सव्वइत्थीणं । पुण्णदरेण हि सम्मोण सासणे गारयापुण्ण ॥ -- गा० १२७ । अर्थात् 'द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देव तथा सम्पूर्ण स्त्रियाँ इनकी अपर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्व नहीं होता । भावार्थ - - सम्यक्त्व सहित जीव मरण करके द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देवों और समग्र स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता ।' आपने 'भावस्त्रीके असंयत सम्यग्दृष्टि चौथा गुणस्थान भी होता है और हो सकता है।' इस अनिश्चित बातको सिद्ध करने के लिए कोई भी आगमप्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। यदि हो, तो बतलाना चाहिये, परन्तु अपर्याप्त अवस्थामें भावस्त्रीके चौथा गुणस्थान बतलानेवाला कोई भी आगमप्रमाण उपलब्ध नहीं हो सकता, यह निश्चित है । (२) आक्षेप -- जब ९२व सूत्र व्यस्त्रीके गुणस्थानोंका निरूपक है तब उससे आगेका ९३वां सूत्र भी द्रव्यस्त्रीका निरूपक है । पहला ९२वां सूत्र उसकी अपर्याप्त अवस्थाका निरूपक है, दूसरा ९३वां पर्याप्त अवस्थाका निरूपक है, इतना ही भेद है । बाकी दोनों सूत्र द्रव्यस्त्रीके विधायक हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि अपर्याप्त अवस्थाका विधायक ९२वां सूत्र तो द्रव्यस्त्रीका विधायक हो और उससे लगा हुआ ९३वां सुत्र पर्याप्त अवस्थाका भावस्त्रीका मान लिया जाय ? (२) परिहार -- ऊपर बतलाया जा चुका है कि ९२वां सूत्र 'पारिशेष्य' न्याय से स्त्रीवेदी भावस्त्रीकी अपेक्षासे है ओर ९३वां सूत्र भावस्त्रीकी अपेक्षा से है ही । अतएव उक्त आक्षेप पैदा नहीं हो सकता है । (३) आक्षेप जैसे ९३६ सूत्रको भावस्त्रीका विधायक मानकर उसमें 'संजद' पद जोड़ते हो, उसी प्रकार ९२ वें सूत्र में भी भावस्त्रीका प्रकरण मानकर उसमें भी असंयत (असंजद - द्वाणे ) यह पद जोड़ना पड़ेगा । विना उसके जोड़े भावस्त्रीका प्रकरण सिद्ध नहीं हो सकता ? (३) परिहार - यह आक्षेप सर्वथा असंगत है। हम ऊपर कह आये हैं कि सम्यग्दृष्टि भावस्त्रियोंमें भी पैदा नहीं होता, तब वहाँ सूत्र में 'असंजद ट्टाणे' पदके जोड़ने व होनेका प्रश्न ही नहीं उठता । स्त्रीवेदकर्मको लेकर वर्णन होने से भावस्त्रीका प्रकरण तो सुतरां सिद्ध हो जाता है। ३६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211145
Book Title93 ve Sutra me Sanjad Pad ka Sadbhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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