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________________ तत्रैव शेषगुणविषयाऽऽरेकापोहनार्थमाह सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजद-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ ॥९३॥ -धवला १, १, ८९-९३ १.० ३२९-३३२ ऊपर उद्धृत हुए मूलसूत्रों और उनके उत्थानिकावाक्योंसे यह जाना जाता है कि पहला (८९) और दूसरा (९०) ये दो सूत्र तो सामान्यतः मनुष्यगति-पर्याप्तकादिक भेदसे रहित (विशेषरूपसे) सामान्य मनुष्यके प्रतिपादक हैं और प्रधानताको लिए हए वर्णन करते हैं । आचार्य वीरसेन स्वामी भी यही स्वीकार करते हैं और इसलिये वे 'मनुष्यगति प्रतिपादनार्थमाह' (८९) तथा 'तत्र (मनुष्यगतौ) शेषगुणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाह' (९०)। इस प्रकार सामान्यतया ही इन सूत्रों के मनुष्यगति सम्बन्धी उत्थानिका वाक्य रचते हैं । इसके अतिरिक्त अगले सत्रोंके उत्थानिकावाक्योमें वे 'मनुष्यविशेष' पदका प्रयोग करते हैं, जो खास तौरसे ध्यान देने योग्य है और जिससे विदित हो जाता है कि पहले दो सूत्र तो सामान्य-मनुष्यके प्ररूपक हैं और उनसे अगले तीनों सूत्र मनुष्यविशेषके प्ररूपक हैं । अतएव ये दो (८९, ९०) सूत्र सामान्यतया मनुष्य गतिके ही प्रतिपादक हैं, यह निविवाद है और यह कहने की जरूरत नहीं कि सामान्य कथन भी इष्टविशेष में निहित होता है-सामान्यके सभी विशेषोंमें या जिस किसी विशेष में नहीं। तात्पर्य यह कि उख्त सूत्रोंका निरूपण सम्भवताकी प्रधानताको लेकर है। तीसरा (९१), चौथा (९२) और पांचवां (९३) ये तीन सूत्र अवश्य मनुष्यविशेषके निरूपक हैंमनुष्योंके चार भेदों (सामान्यमनुष्य, मनष्यपर्याप्त, मनष्यनी और अपर्याप्त मनुष्य) मेसे दो भेदों-मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी-के निरूपक हैं। और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि वीरसेन स्वामीके 'मनुष्य विशेषस्य निरूपणार्थमाह', 'मानुषीष निरूपणार्थमाह' और 'तत्रैव (मानुषीष्वेव) शेषगुणविषयाऽरेकापोहनार्थमाह' इन उत्थानिकावाक्योंसे भी प्रकट है। पर द्रव्य और भावका भेद यहाँ भी नहीं है-द्रव्य और भाव का भेद किये बिना ही मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यणीका निरूपण है। यदि उक्त सूत्रों या उत्थानिकावाक्योंमें 'द्रव्यपर्याप्तमनुष्य' और 'द्रव्यमनुष्यणी' जैसा पद प्रयोग होता अथवा टीकामें ही वैसा कुछ कथन होता, तो निश्चय ही 'द्रव्यप्रकरण' स्वीकार कर लिया जाता। परन्तु हम देखते हैं कि वहाँ वैसा कुछ नहीं है । अतः यह मानना होगा कि उक्त सूत्रोंमें द्रव्यप्रकरण इष्ट नही है और इसलिए ९३वें सूत्र में द्रव्यस्त्रियों के ५ गुणस्थानोंका वहाँ विधान नहीं है, बल्कि सामान्यत: निरूपण है ओर पारिशेष्यन्यायसे भावापेक्षया निरूपण वहाँ सूत्रकार और टीकाकार दोनोंको इष्ट है और इसलिए भावलिङ्गको लेकर मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंका विवेचन समझना चाहिये। अतएव ९३वें सूत्र में 'संजद' पदका प्रयोग भ तो विरुद्ध है और न अनुचित है। सूत्रकार और टीकाकारको प्ररूपणशैली उसके अस्तित्वको स्वीकार करती है। यहां हम यह आवश्यक समझते हैं कि पं० मक्खनलाल जी शास्त्रीने जो यहाँ द्रव्यप्रकरण होनेपर जोर दिया है और उसके न मानने में जो कुछ आक्षेप एवं आपत्तियां प्रस्तुत की हैं उनपर भी विचार कर लिया जाय । अतः नीचे 'आक्षेप-परिहार' उपशीर्षकके साथ विचार किया जाता है। आक्षेप-परिहार (१) आक्षेप-यदि ९२वाँ सूत्र भावस्त्रीका विधायक माना जाय-द्र व्यस्त्रीका नहीं, तो पहला, दूसरा और चोथा ये तीन गुणस्थान होना आवश्यक है क्योंकि भावस्त्री माननेपर द्रव्यमनुष्य मानना होगा। और -३६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211145
Book Title93 ve Sutra me Sanjad Pad ka Sadbhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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