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जैन संस्कृति का आलोक
भी यथा प्रकार के समुल्लेखों के साथ अपना एक स्थान अवश्य बना लेता है।
काफी व्यापक प्रभाव था और पापित्यियों से भी उनका अच्छा परिचय था।
कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि यज्ञयागादि प्रधान वेदों के बाद उपनिषदों में आध्यात्मिक चिन्तन की प्रधानता में तीर्थंकर पार्श्वनाथ के चिन्तन का भी काफी प्रभाव पड़ा है। इस तरह वैदिक परम्परा के लिए तीर्थंकर पार्श्वनाथ का आध्यात्मिक रूप में बहुमूल्य योगदान कहा जा सकता है।
पालि दीघनिकाय के सामण्णफल सुत्त में मक्खलि गोशालक आदि जिन छह तीर्थंकरों के मतों का प्रतिपादन है, उनमें निग्गण्ठनातपुत्त के नाम से जिन चातुर्याम संवर अर्थात् सबवारिवारित्तो, सब्बवारियुतो, सव्ववारिधतो और सब्बवारिफुटो की चर्चा है, वैसी किसी भी जैनग्रन्थों में नहीं मिलती। स्थानांग, भगवती उत्तराध्ययन आदि सूत्र ग्रन्थों में तो पार्श्व प्रभु के सर्व प्राणातिपात विरति, सर्वमृषावाद विरति, सर्व अदत्तादान विरति और सर्व बहिर्धादान विरति रूप चातुर्याम धर्म का प्रतिपादन मिलता है। जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार सभी तीर्थंकरों ने पाँच महाव्रत रूप आचार धर्म का प्रतिपादन समान रूप से किया है। यह भी ध्यातव्य है कि अर्धमागधी परम्परानुसार चातुर्याम का उपदेश पार्श्वनाथ ने दिया था, न कि ज्ञातपुत्र महावीर ने। किन्तु इस उल्लेख से यह अवश्य सिद्ध होता है कि भगवान् बुद्ध के सामने भी पार्श्वनाथ के चिन्तन का
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ का प्रभावक व्यक्तित्व और चिन्तन ऐसा लोकव्यापी था कि कोई भी एक बार इनके या इनकी परम्परा के परिपार्श्व में आने पर उनका प्रबल अनुयायी बन जाता था। उनके विराट् व्यक्तित्व का विवेचन कुछ शब्दों या पृष्ठों में करना असम्भव है, फिर भी विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन और सीमित शक्ति से उन्हें जितना जान पाया, यहाँ श्रद्धा विनत प्रस्तुत किया है ताकि हम सभी उनके प्रभाव को जानकर उन्हें जाननेसमझने के लिए आगे प्रयत्नशील हो सकें।
-रीडर एवं अध्यक्ष, जैन दर्शन विभाग सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी
सन्दर्भ ०१. क. पापित्यानां-पार्श्वजिन शिष्याणामयं पावापत्यीयः - भगवती टीका १/६ ख. पापित्यस्य-पार्श्वस्वामि शिष्यस्य अपत्यं शिष्यः पार्थापत्यीयः - सूत्र ०२/७ ०२. वेसलिए पुरीरा सिरियासजिणे ससासणसणहो ।
हेहयकुलसंभूओ चेइगनामा निवो आसि।। उपदेशमाला गाथा ६२. ०३. भगवई २/५, पैरा ११०, पृष्ठ. १०५. ०४. पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिबुडे हेट्टा विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते,
उप्पिं विसाले-भगवई २/५/६/२५५ पृष्ठ. २३१ ०५. भगवई २/५/६८ पृष्ठ. १०५
| तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी व्यक्तित्व और चिन्तन
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