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तिरुवल्लुवर तथा उनका अमर ग्रंथ तिरुक्कुरल
वेण्डुदल् वेण्डामै इलान् अडि शेर्न्दाक्र्कु
याण्डुम् इडुम्बै इल ॥ रागद्वेषरहित (ईश्वर) के चरणों में शरण पानेवाले भक्तों को त्रिदोष (मानसिक, वाचिक और कायिक) नहीं लगते।
इरुळ् शेरिरुविनैयुम् शेरा इरैवन्
पॉरुळ शेर् पुकळ् पुरिन्दार् माटु ॥ शुभ फल और अशुभ फल दोनों मिथ्यात्व और अज्ञानरूपी अंधकार के मूल हैं। जो सर्वरक्षक के सत्य प्रकाश या सत्यकीर्ति के अभिलाषी हैं उनके पास दोनों कर्मफल नहीं फटकते।
पॉरि वायिळ् ऐन्दवित्तान् पॉय् तीरॉळुक्क
नॅरि निरार नीडु वाळवार ।। पंचेन्द्रियनिग्रही तथा असत्यरहित के नियमों पर चलनेवाले अमर बनते हैं।
तनकुवमै इल्लादान् ताळ् शेन्दारकल्लाल
मनकवल्लै माट्रलरिदु॥ निरुपम (ईश्वर) के चरण सेवकों को छोड़ इतर जनों द्वारा मानसिक चिंता दूर होना कठिन है।
अरवाळि अन्दणन् ताळ् शेरन्दाकल्लाल्
पिरवाळि नीन्दलरिदु॥ धर्मसमुद्र अथवा धर्मस्वरूप और दयानिधि के चरणसेवकों को छोड़ अन्य लोग इतर (अर्थकामरूपी) समुद्रों को तैरकर पार न पहुँच सकते हैं।
कोळिल् पोरियिर गुणमिलवे एए गुणत्तान्
ताळ वणङ्गात्तले ॥ जिस तरह गुणरहित इन्द्रिय निष्फल है, उसी तरह अष्टगुणवाले (अनंतज्ञान अनंतदर्शन श्रादि अष्टगुणयुक्त सिद्ध भगवान) की वंदना न करनेवाला सिर भी निष्फल है।
पिप् िपेरुङ्गाडल् नोन्दुवर् नीन्दार
इरैवनडि शेरादार ॥ सर्वरक्षक (ईश्वर) के चरणसेवी यह भवमहासागर तिर जाते हैं; दुसरे नहीं।
पाठक देखेंगे कि ऊपर के मंगलाचरण में आदि भगवान् , केवलज्ञानसंपन्न, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रियनिग्रही, रागद्वेषरहित और अष्टगुणयुक्त आदि शब्द जैन परंपरा से ही संबंध रखते हैं। निर्ग्रन्थ संप्रदाय में ऋषभदेव श्रादिदेव या श्रादि भगवान् के नाम से प्रसिद्ध हैं । प्रायः सब जैनाचार्यों ने ऋषभदेव की आदि भगवान के रूप से ही स्तुति की है। ज्ञानावरणीय कर्म के विलय होने पर जो संपूर्ण ज्ञान होता है उसे केवलज्ञान कहते हैं ईश्वर के लिए इस शब्द का प्रयोग केवल जैन परंपरा में ही है। कर्म के कारणों में मिथ्यात्व का सबसे प्रमुख स्थान है । मिथ्यात्व का नाश होने पर ही प्राणी गुणविकास द्वारा गुणस्थान के सोपानों पर आरोहण : करता है । मुमुक्षु के लिए जैनपरंपरा में पंचेन्द्रियों पर दमन करने के लिए जगह-जगह भारपूर्वक कहा गया है। इसी प्रकार ईश्वर के लिए जैन परंपरा में वीतराग या रागद्वेषरहित इन दोनों विशेषणों का प्रयोग होता
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