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"ताकिाक योग":स्वरूप एवं मीमांसा ० डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी, आचार्य, एम. ए. पी-एच. डी, डी. लिट. साहित्यालङ्कार तन्त्र-शब्दार्थ और परिभाषा
'तन्त्र' शब्द के शास्त्रकारों ने अनेक अर्थ किये हैं, जिनमें मुख्यत: 'सिद्धान्त, शासनप्रबन्ध, व्यवहार, नियम, वेदशाखा, शिव-शक्ति आदि देव-देवियों का पूजा-विधायक शास्त्र, आगम, कर्मकाण्ड, पद्धति और विविध उद्देश्यों के पूरक उपाय, आदि कोश-सम्मत हैं। जैसा कि 'मेदिनीकोश' में कहा गया है:
तन्त्रं कुटम्बकृत्ये च सिद्धान्ते चौषधोत्तमे । प्रधाने तन्तुद्भवे च शास्त्रभेदे परिच्छदे ॥ श्र ति-शाखान्तरे हेतावभयार्थ-प्रयोजने ।
इति कर्तव्यतायां च........................॥ इत्यादि । 'वाचस्पत्य-कोश' ने और भी कुछ अन्य अर्थ दिये हैं। जिनमें व्युत्पत्ति की दृष्टि से '१. तननं तन्त्रम्, २. तन्यतेऽनेनेति तन्त्रम्, ३. तन्त्रणं तन्त्रम्, ४. तनोति त्रायते चेति तन्त्रम्' इन व्युत्पत्तियों में विस्तार, धारण और पालनार्थक तनु, तत्रि और तन्-त्रैड धातुओं का प्रयोग हुना है। इन्हीं सब अर्थों को लक्ष्य में रखकर परिभाषा की गई है कि- .
सर्वेऽर्था येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जना:।
इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते ॥ और इसके अनुसार 'सभी अनुष्ठानों का विस्तार-पूर्वक ज्ञान तथा उनके प्रयोगों से सम्पादित कर्मों के द्वारा संरक्षण की प्राप्ति' यह अर्थ उपलब्ध होता है। 'कामिकागम' में भी इसी अर्थ की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि
तनोति विपुलानर्थान् तत्त्वमात्र-समन्वितान् ।
त्राणं च कुरुते यस्मात् तन्त्रमित्यभिधीयते ॥ इस प्रकार अनेक अर्थतत्त्वों से गभित तन्त्र-शब्द 'कर्मों के युगपद-भाव-(कर्मणोयुगपद्भावस्तन्त्रम् (१७५१) कात्यायन श्रौतसूत्र) के रूप में व्यवहृत होता पाया है। तन्त्र के प्रकार और योग
'इष्टदेव अथवा देवी की उपासना में उपयोगी, साधकों के द्वारा अनुष्ठेय सभी अनुष्ठानों का विधान ही तन्त्र है, इस दृष्टि से तन्त्र के दो प्रकार हो जाते हैं-१. ज्ञान और २. विज्ञान । इन दोनों के आधार पर पृथक-पृथक् व्यवस्था होने से 'तान्त्रिक ज्ञान' और 'तान्त्रिक-विज्ञान' के रूप में तन्त्र-सम्बन्धी प्रक्रियाओं का पर्याप्त विकास हुना है। इसी प्रकार 'योग' शब्द भी अपने आप में अनेकविध अर्थों को समाये हुए है, और विभिन्न प्राचार्यों
१. "संयोग, उपाय, ध्यान, संगति, प्रेम, छल, प्रयोग, औषधि, धन, लाभ, कौशल, परिणाम,
नियम, उपयुक्तता, उपायचतुष्टय-साम, दाम, दण्ड और भेद, सम्बन्ध, सद्भाव, शुभफल, वैराग्य, सुयोग, मोक्षोपाय, समाधि, चित्त को एकाग्र करने की प्रक्रिया तथा यन्त्र, मन्त्र, तन्त्रादि से साध्य क्रिया" ये और ऐसे ही कुछ अन्य अर्थ कोशग्रन्थों में मिलते हैं।
आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम
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