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तमिलनाडु में जैन धर्म और जैन संस्कार
मुनि श्री सुमेरमल 'सुमन'
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य
युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी का आदेश पाकर हम सब बम्बई से दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में मद्रास पास के लिए गये। लगभग एक वर्ष तक इस भूमि पर पर्यटन किया। अनेक ऐतिहासिक स्थलों का अवलोकन करने का मौका मिला। इससे बहुत कुछ जाना, देखा और समझा। मुझे लगा कि वहाँ पर जैन धर्म की जड़ें गहुत बहरी हैं, और वहाँ पर आज भी संस्कारों का प्रभाव है ।
वैसे तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अति प्राचीन काल से चलता आ रहा है। यह एक आम मान्यता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में जब बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा. उस समय श्रुतकेवली भद्रबाहु ने बारह हजार मुनि संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया । इस यात्रा में राज-पाट को छोड़कर चन्द्रगुप्त मौर्य भी साथ ही गये थे। कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलगोल पहुँचने पर भद्रबाहु को सहसा अभास हुआ कि अब उनका अन्तिम समय निकट है, यह अनुभव करके उन्होंने मुनि संघ को यहाँ से दक्षिण में विभिन्न स्थानों पर विचरण करते हुए धर्म-प्रभावना करने का आदेश दिया और वे स्वयं श्रवणबेलगोल में ही रुक गये । चन्द्रगुप्त भी इन्हीं के साथ रहा। भद्रबाहु ने यहीं पर समाधिपूर्वक नश्वर शरीर को त्यागा । भद्रबाहु के मुनिसंघ के साथ इस प्रयास के बाद दक्षिण में जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ । यद्यपि समय-समय पर अनेक संघर्ष झेलने पड़े किन्तु आज जो स्थिति है, उसका प्रारम्भ तब से ही माना जाता रहा है । यह अब अनुश्रुति नहीं रहकर ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध भी हो चुका है।
लेकिन एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि महान थुतकेवली भद्रबाहु ने भयंकर दुर्भिक्ष के समय में दक्षिण की ओर ही प्रस्थान क्यों किया ? इसके लिए यह सहज उत्तर दिया जा सकता है कि भद्रबाहु के सामने उस समय जैन धर्म और मुनिसंघ दोनों की रक्षा का एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व था । यह वस्तुस्थिति भी है। लेकिन इसके साथ ही यह दूसरा प्रश्न उठता है कि धर्म और संघ की रक्षा का सवाल तत्कालीन मगध, पाटलीपुत्र आदि में भयंकर दुर्भिक्ष के कारण जितना कठिन था, उससे कम कठिन दक्षिण में प्रस्थान करने पर भी नहीं था, क्योंकि दक्षिण तो उनके लिये एकदम अपरिचित क्षेत्र था । आहार और मुनिचर्या के जो कठिन विधान हैं, उनका पालन करना दक्षिण में ज्यादा कठिन था क्योंकि दक्षिण में सुनि संघ की मर्यादा आदि को समझने वाले नहीं थे, अन्य धर्म के अनुयायी थे । उस हालत में बारह हजार के इतने बड़े मुनिसंघ का निर्वाह अपरिचित हालतों में कैसे हुआ होगा, यह एक विचारणीय मुद्दा अवश्य है ।
इस प्रश्न का उत्तर विद्वानों ने खोज निकाला है और उसे अब मान्यता भी मिल गई है कि भगवान महावीर ने स्वयं कलिंग प्रदेश में विहार करते हुए वहाँ पर जैन धर्म की कांफी प्रभावना की और कालान्तर में कलिंग जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन गया। इस बात के प्रमाण हाथीगुफा स्थित सम्राट खारवेल के शिलालेख से भी मिलते हैं। यह भी कहा जाता है कि कलिंग में जैन धर्म का प्रवेश शिशुनागवंशी भी प्रमाण मिलते हैं कि सम्राट खारवेल के समय में कलिंग में कई जैन प्रदेश से मिलती है । ऐसी हालत में भगवान महावीर के समय में ही
राजा नन्दवर्धन के समय में हो गया था। ऐसे मन्दिर विद्यमान थे । कलिंग की सीमा आन्ध्र कलिंग के रास्ते आन्ध्र में जैन धर्म का प्रवेश हो
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