________________
काश में कौन-कौन आचार्य प्रकाशमान रहे इत्यादि । तमिलनाडु में ईस्वी पूर्व पांचवीं शताब्दी से ही जैन धर्म के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं। तमिलनाडु से निकटस्थ देश लंका के इतिहास से तमिलनाडु में जैन धर्म का काल ज्ञात होता है।
लंका में जैन धर्म
श्रीलंका एक लघुतर द्वीप भूमि है जो तमिलना से अति निकटस्थ है उसके चारों ओर हिन्दमहासागर वेष्टित है। वहां पर ई० पू० चौथी शताब्दी से ही जैन धर्म का अस्तित्व था। इसके लिए उस देश का इतिहास ही साक्षी है। महावंश नामक बौद्ध ग्रन्थ लंका के इतिहास को बताने वाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है यह ई० पू० पांचवीं शताब्दी में ही तमिलनाडु में जैन धर्म का अस्तित्व होने का आधार देता है । लंका के राजा पाण्डुकाभय का शासन काल ई० पू० ३७७-३०७ था । उसकी राजधानी अनुराधपुरम थी । उस नगर में जैन निग्र थ साधुओं के लिए पृथक् रूप में वासस्थान एवं मंदिर उन्होंने बनवाये । निर्ग्रन्थ पर्वत नामक स्थान पर उन्होंने निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए विशेष रूप से आवास स्थान बनवाया था। कालांतर में उस स्थान का नाम पाण्डुका भय भी पड़ गया। महावंश ग्रन्थ में जैन धर्म का निगण्डुमत आजीवक मता नाम होने की बातें मिलती हैं। अनुराधपुरम के निकटस्थ अभयगिरि पर्वत पर दो मूर्तियां अंकित हैं, उनमें एक भगवान् बाहुबलि की है और दूसरी तीर्थंकर की। ये मूर्तियाँ महावंश ग्रन्थ में बतायी गयी बातों की पुष्टि करती हैं, अतः ई० पू० पांचवीं शताब्दी में लंका में जैन धर्म के अस्तित्व भी सिद्ध करती हैं ।
लंका में जैन धर्म तमिलनाड से ही गया होगा। वर्तमान में वहां बौद्ध धर्म का बोलबाला है। यह धर्म भी तमिलनाडु के मार्ग से ही लंका में गया है। जैन निर्ग्रन्थ साधु जल में या यान में चलते नहीं । लंका तो हिन्दमहासागर से वेष्टित है। उत्तर भारत या कलिंग देश से सीधा लंका में जैन साधु का विहार संभव नहीं। लंका और तमिलनाडु के मध्यस्थ जल-भाग अति संकुचित है। ई० पू० इस भाग का जलस्थल सूख कर जल रहित रहा होगा। उसी मार्ग से जैन निर्ग्रन्थ साधु लंका गये होंगे। ऐसा अन्वेषकों का अकाट्य विश्वास एवं मान्यता है। ईस्वी पूर्व पांचवीं शताब्दी में तमिलनाडु के मार्ग से लंका में जैन निर्ग्रन्थ साधु गये हैं तो उसके पूर्व ही तमिलनाडु में जैनधर्म का अस्तित्व अवश्य होना चाहिये ।
कुछ लोगों की धारणा है कि आचार्य भद्रबाहु के दक्षिण में स्थित श्रवणबेलगोला में ( ई० पू० तीसरी शताब्दी के ) आगमन के बाद ही तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रवेश हुआ है। उनकी यह धारणा गलत है। जैन साधुओं का आचार-विचार अति पवित्र होता है । वे सिर्फ श्रावक के हाथ से ही आहार लेते हैं । भद्रबाहु के आगमन से पूर्व तमिलनाडु में जैन धर्म के अनुयायी श्रावक न रहे हों तो आगन्तुक आचार्यों को आहारादि की व्यवस्था कौन करते । आहारादि की व्यवस्था के बिना आचार्यों का विहार कैसे होता ? अत: आचार्यों का प्रवेश एवं लंका का इतिहास आदि से यह सिद्ध होता है कि ईस्वी पूर्व पांचवी वाताब्दी से ही तमिलना में जैन धर्म
अवश्य था ।
विशालाचार्य संघ का बिहार
ई० पू० तीसरी शताब्दी में उत्तर भारत में बारह वर्ष का अकाल पड़ा था । उस समय आचार्य भद्रबाहु बारह हजार मुनियों के साथ दक्षिण भारत में स्थित श्रवणबेलगोला में आकर रहे। सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य भी अपने परिवार सहित उनके संघ में रहे | यह इतिहास सर्वसम्मत है । आचार्य भद्रबाहु ने अपने शिष्य विशाखाचार्य को आठ हजार मुनिगणों सहित तमिलनाडु में धर्म के प्रचारार्थ भेजा था उन मुनिगणों ने तत्काल तमिलनाड में पाण्डिय और चोल जनपद में स्थित दिगम्बर मुनियों के साथ मिलकर सर्वत्र जैन धर्म का प्रचार किया था। इन बातों को तमिलनाडु में स्थित तत्कालीन अभिलेखों से ज्ञात कर सकते हैं ।
इतिहास काल कहलाने वाले रामायणकाल के पूर्व ही तमिलनाड़ में जैन साधु और बावकों की अवस्थिति अत्यंत उन्नत दशा में थी । उस समय के शासकों के सहयोग के बिना धर्म का अस्तित्व नहीं हो सकता था । वे न्यायपूर्वक नीति के अनुकूल शासन करते थे। उनके शासन में संतों की वाणी एवं धर्म का प्रसरण होता था । सामाजिक जीवन, सभ्यता, ज्ञान, कला आदि की अभिवृद्धि हुई थी । अगर शासक दानव प्रकृति के होते तो संत वहां विद्यमान न रह पाते । तमिल भाषा में कम्वरामायण प्रामाणिक ग्रन्थ है, जो अजैन कवि कम्बन का लिखा हुआ है । उसमें उन्होंने रामचन्द्र के मुंह से ये बातें कहलायी हैं। सुग्रीव के सेना सहित लंका जाते समय रामचन्द्र ने उनको लंका का मार्ग बताते हुए कहा है कि "दक्षिणापथ की सीमा में वेंकटगिरि स्थित है। उस पर्वत पर द्रव्यगुण पर्याय के
न साहित्यानुशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
१८१
www.jainelibrary.org