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तप : जीवन शोधन की प्रक्रिया
- मुनि श्रीचन्द
जिस वस्तु से हम परिचित नहीं होते उसके प्रति हमारा अनुराग नहीं होता । अनुराग परिचय के बाद हो सकता है । तप के प्रति हमारा अनुराग तभी बढ़ेगा जब हम उससे परिचित होंगे।
दर्शन दिग्दर्शन
तप एक छोटा-सा शब्द है । दो अक्षरों का, वह भी लघु अक्षरों का। इसकी शब्द रचना जितनी लघु है इसका कार्य उतना ही महान है। अणु से कई गुना शक्ति इसमें है । इसमें अनंत ज्ञान, अनंत शक्ति आत्मा का स्वरूप और परमात्म- पद प्राप्त किया जा सकता
है ।
जैसे - अणुशक्ति का दूरुपयोग करने वाला संहार भी कर सकता है, लाखों व्यक्तियों को प्राण-रहित कर सकता है वैसे ही तप से प्राप्त शक्ति के द्वारा एक स्थान पर बैठा मानव १६१, जनपदों को भस्म कर सकता है। इससे स्पष्ट है कि तप में अणु से भी कई गुना शक्ति है । शक्ति अपने आप में शक्ति है। उसका दुरुपयोग करना शक्ति का दोष नहीं, व्यक्ति की उच्छृंखलता है ।
तप का परिचय
वासना
जैन धर्म में तप के बारह प्रकार हैं । प्रथम छह प्रकारों को बाह्यतप और अन्तिम छह प्रकारों को आभ्यन्तर तप कहा है । प्रथम चार प्रकार आहार से सम्बन्धित हैं। शेष आठ प्रकारों में साधना की अन्य विधियां हैं । कष्ट - सहिष्णुता, पांच इन्द्रियों का संयम, - विजय, अहं का त्याग, क्रोधजय, प्रायश्चित, सरलता, नम्रता, विनय, सेवा, स्वाध्याय ध्यान, ममत्व-त्याग आदि की साधना-विधि तप की परिधि में है । यद्यपि साधनापद्धति में आभ्यन्तर तप बाह्यतप से अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । फिर भी काल-प्रवाह से जन मानस आभ्यन्तर तप की अपेक्षा उपवास आदि बाह्य तप का अधिक आचरण करता है ।
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