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________________ ४० आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ व्याख्या के रूप में स्वतन्त्र रूप से आप्त परीक्षा लिखी है । परन्तु उसका कारण अन्य है। बात यह है कि आप्तमीमांसा पर भट्ट अकलंकदेव द्वारा निर्मित अष्टशती के समान स्वयं द्वारा निर्मित अष्टसहस्री को अति कष्टसाध्य जानकर ही उन्होंने उक्त मंगल श्लोक की स्वतन्त्र व्याख्या की रूप में आप्तपरीक्षा की रचना की। स्पष्ट है कि उक्त मंगल श्लोक को सूत्रकार की ही अनुपम कृति के रूप में स्वीकार करना चाहिए। ४. सूत्रकार और रचनाकालनिर्देश आचारशास्त्र का नियम है कि अर्हत धर्म का अनुयायी साधु अन्तः और बाहर परम दिगम्बर और सब प्रकार की लौकिकताओं से अतीत होता है। यही कारण है प्राचीन काल में सभी शास्त्रकार शास्त्र के प्रारम्भ में या अन्त में अपने नाम, कुल, जाति और वास्तव्य स्थान आदि का उल्लेख नहीं करते थे। वे परमार्थ से स्वयं को उस शास्त्र का रचयिता नहीं मानते थे। उनका मुख्य प्रयोजन परम्परा से प्राप्त वीतरागता की प्रतिपादक द्वादशांग वाणी को संक्षिप्त, विस्तृत या भाषान्तर कर संकलन कर देना मात्र होता था। उसमें भी उस काल में उस विषय का जो अधिकारी विद्वान होता था उसे ही संघ आदि के ओर से यह कार्य सोंपा जाता था। अन्यथा प्ररूपणा न हो जाय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता था। वे यह अच्छी तरह से जानते थे कि किसी शास्त्र के साथ अपना नाम आदि देने से उसकी सर्व ग्राह्यता और प्रामाणिकता नहीं बढती। अधिकतर शास्त्रों में स्थल-स्थल पर 'जिनेन्द्रदेव ने ऐसा कहा है'', 'यह जिन देव का उपदेश है', 'सर्वज्ञ देव ने जिस प्रकार कहा है उस प्रकार हम कहते है '3, इत्यादि वचनों के उल्लेखों के साथ ही प्रतिपाद्य विषयों के लिपिबद्ध करने की परिपाटी थी। प्राचीन काल में यह परिपाटी जितनी अधिक व्यापक थी, श्रुतधर आचार्यों का उसके प्रति उतना ही अधिक आदर था। तत्त्वार्थसूत्र की रचना उसी परिपाटी का एक अंग है, इसलिए उसमें उसका संकलयिता कौन है इसका उल्लेख न होना स्वाभाविक है। अतः अन्य प्रमाणों के प्रकाश में ही हमें इस तथ्य का निर्णय करना होगा कि आगमिक. दृष्टि से सर्वांगसुन्दर इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का संकलयिता कौन है ? इस दृष्टि से सर्व प्रथम हमारा ध्यान आचार्य वीरसेन और आचार्य विद्यानन्द की ओर जाता है। आचार्य वीरसेन जीवस्थान कालानुयोग द्वारा पृ. ३१६ में लिखते हैं-- 'तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि' वर्तना-परिणामक्रियापरत्वापरत्वेच कालस्य' इदि दव्वकालो परूविदो'। इस उल्लेख में तत्त्वार्थ सूत्र को गृद्धपिच्छाचार्य द्वारा प्रकाशित कहा गया है । आचार्य विद्यानन्द ने भी अपने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में इन शब्दों द्वारा तत्त्वार्थसूत्र को आचार्य गृद्धपिच्छ की रचना के रूप में स्वीकार किया है—'गणाधिप-प्रत्येकबुद्ध-श्रुतिकेवल्यभिन्न दशपूर्वधर सूत्रण स्वयंसम्मतेन व्यभिचार इति चेत् ? न, तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतराग प्रणेतकत्वसिद्धेरहद्भाषितार्थं गणधरदेवैतिथमिति वचनात् एतेन गृद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारता निरस्ता ।' १. समयसार, गाथा ७० । २. समयसार, गाथा १५० । ३. बोधपाहुड, गाथा ६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211095
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Tikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shatri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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