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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएं ४. अन्य टीकासाहित्य दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र का विस्तृत और सांगोपांग विवेचन करनेवाली ये तीन रचनाएं मुख्य हैं । इनके अतिरिक्त तत्त्वार्थवृत्ति आदि और भी अनेक प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाएं हैं । हिन्दी, मराठी और गुजराती आदि अन्य अनेक भाषाओं में भी तत्त्वार्थसूत्र पर छोटेबडे अनेक विवेचन लिखे जा चुके हैं । यदि तत्त्वार्थसूत्र पर विविध भाषाओं में लिखे गये सब विवेचनों की सूची तैयार की जाय तो उसकी संख्या सौ से अधिक हो जायगी । इसलिए उन सब पर यहाँ न तो पृथक रूप से प्रकाश ही डाला गया है और न वैसी सूची ही दी गई है । I श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र का क्या स्थान है यहाँ तक इसका विचार किया। आगे संक्षेप में श्वेताम्बर परम्परा ने तत्त्वार्थसूत्र को किस रूप में स्वीकार किया है इसका उहापोह कर लेना इष्ट प्रतीत होता है । आचार्य पिच्छ आचार्य कुन्दकुन्द के पट्टधर शिष्य थे । उन्होंने किसी भव्य जीव के अनुरोध परतत्त्वार्थसूत्र की रचना की है। वर्तमान में उपलब्ध सर्वार्थसिद्धि यह उसकी प्रथम वृत्ति है । सर्वार्थसिद्धि के रचियता आचार्य पूज्यपाद का लगभग वही समय है जब श्वेताम्बर परम्परा में देवार्धगणि की अध्यक्षता में श्वेताम्बर आगमों का संकलन हुआ था । किन्तु उससे साहित्यिक क्षुधा की निवृत्ति होती हुई न देखकर श्वेताम्बर परम्परा का ध्यान दिगम्बर परम्परा के साहित्य की ओर गया । उसी के फल स्वरूप ७ व ८ वीं शताब्दि के मध्य किसी समय उमास्वाति वाचक ने तत्त्वार्थसूत्र में परिवर्तन कर भाष्यसहित तत्त्वार्थाधिगम की रचना की। उनका यह संग्रह ग्रन्थ है इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं स्वरचित एक कारिका में किया है । वे लिखते हैं ५५ तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थं संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥२२॥ Jain Education International इससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि वाचक उमास्वाति की यह स्वतन्त्र रचना नहीं है । किन्तु अन्य द्वारा रचित रचनाओं के आधार से इसका संकलन किया गया है । इनके स्वनिर्मित भाष्य में कुछ ऐसे भाष्य को लिपिबद्ध करते उत्तर कालीन स्तुति तथ्य भी उपलब्ध होते हैं जिनसे विदित होता है कि तत्त्वार्थाधिगम और उसके समय इनके सामने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी सर्वार्थसिद्धिवृत्ति उनके सामने रही है ।' स्तोत्रों में स्तुतिकारों द्वारा गुणानुवाद आदि में अपनी असमर्थता व्यक्त करने के लिये जैसी कविता लिपिबद्ध की गई उसका पदानुसरण इन्होंने स्वरचित कारिकाओं में बहुलता से किया है । इससे भी ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी यह रचना ७ वीं ८ वीं शताब्दि से बहुत पहले की नहीं होनी चाहिए । उदाहरण देखिए । १. देखो, सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना ४४-४५ आदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211095
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Tikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shatri
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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