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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
४. आस्रवतत्त्वकर्म आस्रवणका ( आगमन) जो कारण है वह आस्रव कहलाता है । जिस प्रकार तालाब में नाली के द्वारा पानी का आस्रवण होता है, अतः उस नाली को जलका आस्रव कहा जाता है, उसी प्रकार चूंकि योग के द्वारा कर्म का आस्रवण होता है, अतः उस योग को आस्रव कहा जाता है । शरीर, वचन और मन की क्रिया का नाम योग है । वह थोडा शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। इनमें शुभ योग पुण्य का और अशुभ योग पाप का आस्रव है । साम्परायिक और ईर्यापथ के भेद से कर्म दो प्रकार का है । कषायसहित प्राणी जिस कर्म को बांधता है वह बांधी गई स्थिति के अनुसार आत्मा के साथ सम्बद्ध रहकर हीनाधिक फल दिया करता है, इसीको साम्परायिक कर्म कहा जाता है । परन्तु र्याप कर्म वह है जो कषाय से रहित प्राणी के योग के निमित्त से आकर के स्थिति व अनुभाग से रहित होता हुआ आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं रहता। जैसे सूखी दिवाल पर मारा हुआ ढेला उससे सम्बद्ध न होकर उसी समय गिर जाता है । इसी प्रकार योग के विद्यमान रहने से कषाय के अभाव में वह स्थिति व अनुभाग से रहित होता है । इस प्रकार प्रथमतः सामान्यरूप से आस्रव के स्वरूप आदि को दिखलाकर पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असातावेदनीय, सातावेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, नारक आयु, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, अशुभ नामकर्म, शुभ नामकर्म, तीर्यकरत्व नामकर्म, नीच गोत्र, उच्चगोत्र और अन्तराय इन कर्मों के आस्रव हेतुओं का क्रमशः पृथक् पृथक् निरूपण किया गया है । तत्त्वार्थसूत्र में इन कर्मों के आस्रव के जो भी कारण निर्दिष्ट किए गए हैं उनसे यहां वे कुछ अधिक कहे गए हैं। उनका उल्लेख सम्भवतः तत्त्वार्थवार्तिक के आधार से किया गया प्रतीत होता है ।
कर्म आता तो है, पर
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यह पूर्व में कहा जा चुका है कि शुभ योग पुण्य के आस्रव का कारण है और अशुभ योग पाप आसव का। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि व्रत से पुण्य का आस्रव होता है और अत्रत से पाप का । हिंसादि पांच पापों के परित्याग का नाम व्रत है । इनका पूर्णतया परित्याग कर देने को महात्रत और देशतः त्याग को अणुव्रत कहा जाता है । पूर्णतया उनका त्याग करनेवाले साधु और देशतः त्याग करनेवाले श्रावक कहलाते हैं। आगे उक्त पांचों के परित्याग रूप पांच व्रतों पृथक् पृथक् पांच पांच भावनाओं आदि का निर्देश करते हुए हिंसादिका स्वरूप कहा गया है । इस प्रकार पांच महाव्रतों व अणुव्रतों का निरूपण करके आगे दिग्नत, देशव्रत, अनर्थ दण्डव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग संख्या और अतिथि संविभाग इन सात शीलत्रतों का निर्देश किया गया है। उक्त सात शीलव्रतों के साथ पूर्वोक्त पांच अणुव्रतों को ग्रहण करने पर ये बारह श्रावक के व्रत कहे जाते हैं । अन्तमें - मरणकी सम्भावना होने पर - सल्लेखना - पूर्वक प्राणों का त्याग भी अवश्य करणीय है । प्रकृत अधिकार को समाप्त करते हुए आगे यथाक्रम से सम्यकत्र, बारह व्रत और सल्लेखना के अतीचार भी कहे गये हैं ।
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५. बन्धतत्त्व- यहां सर्वप्रथम मिथ्यात्व असंयम, प्रमाद, कारणों का निर्देश करते हुए क्रमसे उनके स्वरूप व भेदों का निरूपण स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जीव कर्मोदय से कषाययुक्त होकर को जो सब ओर से ग्रहण करता है, इसका नाम बन्ध है । यह बन्ध
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कषाय और योग इन पांच बन्ध के किया गया है । तत्पश्चात् बन्ध का योग के द्वारा कर्म के योग्य पुद्गलों आत्मा की कथंचित् मूर्त अवस्था में
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