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८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ
तन्त्र होनेके कारण वह अपने स्वभावको भूला हुआ है । इस कारण वह किसी आपत्तिके आनेपर 'करमगति टाली नाहि टल', 'विधिका विधान ऐसा ही है', 'भवितव्यता दुर्निवार है' इत्यादि वाक्योंका प्रयोग करता है । यह तो वही हुआ कि जब जैनदर्शनने ईश्वरकी दासतासे मुक्ति दिलाई तो कर्मकी दासता स्वीकार कर ली । यथार्थमें कर्मकी गति अटल नहीं है । उसे हम अपने पुरुषार्थसे टाल सकते हैं । उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण आदि कर्मकी विविध अवस्थायें हमारे पुरुषार्थ के अधीन हैं । अतः कर्मका सम्यग्दर्शन करके हमें अपने अनुकूल सत्पुरुषार्थ में लग जाना चाहिए। वही पुरुषार्थं सत् कहलाता है जो आत्मकल्याणका साधक होता है ।
शास्त्रका सम्यग्दर्शन
इस प्रकरण में यह बतलाया गया है कि वैदिक परम्परा धर्म और अधर्मकी व्यवस्था के लिए वेदको प्रमाण मानती है तथा धर्मका ज्ञान केवल वेदके द्वारा ही मानती है । किन्तु जैन परम्पराने केवल शास्त्र होनेके कारण ही किसी शास्त्रकी प्रमाणता स्वीकार नहीं की है । यहाँ तो उसी शास्त्रको प्रमाण माना गया है। जिसका प्रणयन सर्वज्ञ और वीतराग पुरुष द्वारा हुआ हो । वर्तमान में अनेक ऐसे शास्त्र प्रचलित जिनका मूल-परम्परा से मेल नहीं खाता है । वही शास्त्र प्रमाण हैं जिसमें हमारी मूलपरम्परासे विरोध न आता हो । अतः हमें यह विवेक तो करना ही होगा कि इस शास्त्रका प्रतिपाद्य विषय मूलपरम्पराके अनुसार है या नहीं । तात्पर्य यह है कि मात्र शास्त्र होनेके कारण ही कोई ग्रन्थ प्रमाण नहीं माना जा सकता है । इसप्रकार शास्त्र विषयक सम्यग्दर्शनके द्वारा हमें यह जानना चाहिए कि इस शास्त्रमें किस युगमें किस पात्रके लिए किस विवक्षासे क्या बात लिखी गई है । यही शास्त्रका सम्यग्दर्शन है ।
तत्त्वाधिगमके उपाय
इस प्रकरण में प्रमाण, नय और निक्षेपका अच्छी तरहसे स्वरूप, भेद आदि समझाकर जैनदर्शन सम्मत स्याद्वाद के विषय में विस्तारसे विचार किया गया है । यह द्रष्टव्य है कि स्याद्वाद में जो 'स्यात्' शब्द है वह एक निश्चित अवस्थाको बतलाता है । स्यात्का अर्थ न तो संशय है, न संभावना, न अनिश्चय और न कदाचित् । शंकराचार्यने शांकरभाष्य में स्याद्वादको संशयरूप लिखा है । इसीके अनुसार वर्तमानमें अनेक विद्वान् स्याद्वादको संशयादिरूप मानते हैं । अतः विद्वान् सम्पादकने महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, डॉ० सम्पूर्णानन्द, डॉ० देवराज आदि विद्वानोंके स्याद्वाद सम्बन्धी मन्तव्योंकी युक्तिपूर्वक समीक्षा करके जैनदर्शन सम्मत स्याद्वादके स्वरूपको पूर्णरूप से स्पष्ट किया है और उसमें संशय, विरोध आदि दोषोंका निराकरण भी किया है ।
लोकवर्णन और भूगोल
इस प्रकरण में यह बतलाया गया है कि जिसप्रकार अपने सिद्धान्तों और तत्त्वोंके स्वतन्त्र प्रतिपादन के कारण जैनधर्म और जैनदर्शनका भारतवर्ष में स्वतन्त्र स्थान है उस प्रकार जैन भूगोल और जैन खगोलका स्वतन्त्र स्थान नहीं है । यथार्थ बात यह है कि भूगोल कभी स्थिर नहीं रहता है । वह तो कई कारणों से कालक्रमसे बदलता रहता है । जैन शास्त्रोंमें भूगोल और खगोलका जो वर्णन मिलता है उसकी परम्परा लगभग तीन हजार वर्ष पुरानी है । प्रायः यही परम्परा अन्य सम्प्रदायोंके ग्रन्थोंमें भी पाई जाती है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओंके भूगोल और खगोल सम्बन्धी वर्णन लगभग एक जैसे हैं ।' सबमें जम्बूद्वीप, विदेह, देवकुरु, उत्तरकुरु, सुमेरु आदि नाम पाये जाते हैं और लाखों योजनकी गिनती भी पायी जाती है । निष्कर्ष यह है कि भूगोल और खगोलकी जो परम्परा परिपाटीसे जैनाचार्योंको मिली उसे उन्होंने
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