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साध्वारत्नपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
दृष्टि में दूध और दही दोनों ही समान हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि दूध, दही, लस्सी इन सब में एक 'गोरस' तत्त्व समान रूप से अनुस्यूत है, जो ध्र व है। इसी प्रकार सोने के विविध आभूषणों में परस्परभिन्नता भी है, सुवर्णत्व की दृष्टि से अभेद भी है। सुवर्ण का अभ्यर्थी किसी भी आभूषण को समान रूप से देखेगा। किन्तु सुवर्णकलशार्थी तथा सुवर्णमुकुटार्थी इन दोनों में, पहले व्यक्ति को दुःख और दूसरे को सुख उस समय होगा जब सुवर्णकलश को तोड़कर सुवर्णमुकुट बनाया जाता होगा, जबकि सुवर्ण के अभ्यर्थी को न दुःख होगा और न सुख । अस्तु,
संश्लेषणात्मक दृष्टि में वस्तु नित्य, अविनश्वर, सत्, एक, सामान्य, व अभेदात्मक है, जबकि विश्लेषणात्मक दृष्टि में वह अनित्य, क्षणिक, असत, अनेक, विशेष व भेदरूप है। वस्त भेदाभेदात्मक, सदसदात्मक, एकानेकात्मक, सामान्य-विशेषात्मक, नित्यानित्यात्मक है। इस तरह प्रत्येक वस्तू परस्पर-विरुद्ध अनेक अनन्त धर्मों का अधिष्ठान है।10
विचार-अभिव्यक्ति के क्षेत्र में प्रत्येक वस्तु की सत्ता सापेक्ष होती है-~-अर्थात् वह अपेक्षाभेद से सद्रूप व असद्रूप-दोनों होती है। वस्तुतः नित्यत्व धर्म अनित्यत्व धर्म का अविनाभावी है ।। जैन दृष्टि से भाव की तरह अभाव भी वस्तुधर्म है ।" घड़ा है-इस कथन में 'है' यह पद घड़े की आपेक्षिक सत्ता को ही व्यक्त करता है, न कि निरपेक्ष सत्ता को । वह नियत स्थान, क्षेत्र, रूप, आकार, गुण विशेष की सत्ता को ही द्योतित करता है । दार्शनिक भाषा में घड़ा 'घड़ा' रूप में ही है, अर्थात् वह अन्य द्रव्यरूप (पट आदि) में बहुत कुछ 'नहीं' भी है, वह पार्थिव है, भौतिक है, अचेतन है; किन्तु वह जलात्मक, अभौतिक या चेतन आदि नहीं भी है । अपने नियत अवयवों से, अपने ही नियतकाल से, अपने नियत गुणादि से सम्बद्धता की अपेक्षा से ही उसका अस्तित्व है। संक्षेप में, प्रत्येक द्रव्य अनन्तानन्त स्वतन्त्र इकाइयों में विभक्त है, प्रत्येक इकाई भी अनन्त-अनन्त त्रैकालिक अवस्थाओं में विभक्त है । पूर्ण सत्य वही कहा जाएगा-जो द्रव्य की समष्टि को अपने अन्दर समेटने की क्षमता रखता हो। कहना न होगा कि सीमित ज्ञान-शक्ति वाले सांसारिक प्राणी समग्र वस्तु का साक्षात्कार कभी नहीं कर पाते. और कछ जान भी पाते हैं तो धर्मों की परस्परविरुद्धता को वाणी से कह भी नहीं पाते। चूंकि भाषा की शक्ति सीमित है, इसलिए वस्तु के परस्पर-विरुद्ध धर्मों का, या उसके अनन्त धर्मों का, अथवा उसकी भेदाभेदात्मकता, नित्यानित्यात्मकता आदि का, एक साथ कथन सम्भव नहीं है, इसलिए वस्तू 'अवक्तव्य' है। वास्तव में हमारा सारा शाब्दिक व्यवहार, अभिप्राय-विशेषवश वस्तु के अनन्तधर्मों तथा परस्परविरुद्ध अनेक धर्मयुगलों में किसी एक ही धर्म-विशेष पर केन्द्रित रहता है। उक्त धर्मविशेषाश्रित कथन पूर्ण 'असत्य' नहीं; तो पूर्ण सत्य भी नहीं कहा जा सकता। जैनदृष्टि से यह 'सत्य का अंश' कहा जाता है।
8. आप्तमीमांसा (समन्तभद्र)-69, 59, अध्यात्मोपनिषद् (यशोविजय) 1/44, तुलना-पातंजल महाभाष्य
1/1/1, योगसूत्रभाष्य-4/13, प्रवचनसार--2/101-102 । 9. पद्मनन्दि पंचविंशतिका-4/591 10. अनन्तधर्मणस्तत्त्वम् (समयसार-कलश-आ० अमृतचन्द्र-2)। 11. सम्मतितर्क (सिद्धसेन)-3/1-4, प्रवचनसार-2/100-101 । 12. युक्त्यनुशासन (समन्तभद्र)-59, न्यायावतार (सिद्धसेन)-16, सर्वार्थसिद्धि (पूज्यपाद)-9/2। 13. तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (विद्यानन्दि)-1/6 सूत्र पर श्लोक सं. 6, जैन तर्कभाषा (यशोविजय)-नय विवरण ।
'तत्त्वमसि वाक्य' : डॉ० दामोदर शास्त्री | ८१
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