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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २७३ उलझी रहती है। लौकिक यश, लाभ आदिकी दृष्टिसे यह धर्मका आचरण करता है। इसे स्वपरविवेक नहीं रहता। पदार्थोके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है। तात्पर्य यह कि कल्याणमार्गमें इसकी सम्यक् श्रद्धा नहीं होती । यह मिथ्यात्व सहज और गहीत दो प्रकारका होता है। इन दोनों मिथ्यादृष्टियोंसे इसे तत्त्वरुचि जागृत नहीं होती । यह अनेक प्रकारकी देव, गुरु तथा लोकमढताओंको धर्म मानता है । अनेक प्रकारके ऊँचनीच भेदोंकी सृष्टि करके मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किसी देवको, जिस किसी भी वेषधारी गुरुको, जिस किसी भी शास्त्रको भय, आशा, स्नेह और लोभसे माननेको तैयार हो जाता है। न उसका अपना कोई सिद्धान्त होता है और न व्यवहार । थोडेसे प्रलोभनसे वह सभी अनर्थ करनेको प्रस्तुत हो जाता है । ज्ञान, पूजा, कुल. जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीरके मदसे मत्त होता है और दूसरोंको तुच्छ समझ उनका तिरस्कार करता है। भय, स्वार्थ, घृणा, परनिन्दा आदि दुर्गणोंका केन्द्र होता है । इसको समस्त प्रवृत्तियोंके मलमें एक ही कुटव रहती है और वह है स्वरूपविभ्रम । उसे आत्मस्वरूपका कोई श्रद्धान नहीं होता, अतः वह बाह्यपदार्थों में लुभाया रहता है। यही मिथ्यादष्टि समस्त दोषों की जननी है, इसीसे अनन्त संसारका बन्ध होता है। अविरति सदाचार या चारित्र धारण करने की ओर रुचि या प्रवत्ति नहीं होना अविरति है । मनुष्य कदाचित् चाहे भी, पर कषायोंका ऐसा तीव्र उदय होता है जिससे न तो वह सकलचारित्र धारण कर पाता है और न देशचारित्र ही। क्रोधादि कषायोंके चार भेद चारित्रको रोकनेकी शक्तिकी अपेक्षासे भी होते हैं १. अनन्तानुबन्धी-अनन्त संसारका बन्ध करानेवाली, स्वरूपाचरणचारित्र न होने देनेवाली, पत्थरकी रेखाके समान कषाय । यह मिथ्यात्वके साथ रहती है। २. अप्रत्याख्यानावरण-देशचारित्र अर्थात् श्रावकके अणुव्रतोंको रोकनेवाली, मिट्टीकी रेखाके समान कषाय । ३. प्रत्याख्यानावरण-सकलचारित्रको न होने देनेवाली, धलिकी रेखाके समान कषाय । ४. संज्वलन कषाय-पूर्ण चारित्रमें किंचित दोष उत्पन्न करनेवाली, जलरेखाके समान कषाय । इसके उदयसे यथाख्यातचारित्र नहीं हो पाता। . इस तरह इन्द्रियोंके विषयों में तथा प्राणिविषयक असंयममें निरर्गल प्रवृत्ति होनेसे कर्मोंका आस्रव होता है। प्रमाद असावधानीको प्रमाद कहते हैं । कुशल कर्मों में अनादर होना प्रमाद है। पांचों इन्द्रियों के विषयमें लीन होने के कारण; राजकथा, चोरकथा, स्त्रोकथा और भोजनकथा आदि विकथाओंमें रस लेने के कारण; क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंसे कलुषित होने के कारण; तथा निद्रा और प्रण यमें मग्न होनेके कारण कशल कर्तव्य मार्गमें अनादरका भाव उत्पन्न होता है। इस असावधानीसे कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होती ही है साथ-ही-साथ हिंसाकी भूमिका भी तैयार होने लगती है । हिंसाके मुख्य हेतुओंमें प्रमादका प्रमुख स्थान है । दूसरे प्राणीका घात हो या न हो, प्रमादी व्यक्तिको हिंसाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधनके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक ही है । अतः प्रमाद हिंसाका मुख्य द्वार है। इसीलिए भगवान् महावीरने बार-बार गौतम गणधरको चेताया था कि “समयं गोयम मा पमायए" अर्थात् गौतम, क्षणभर भी प्रमाद न कर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211087
Book TitleTattva nirupana
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Nine Tattvas
File Size2 MB
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