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पंचम खण्ड / १३४
नष्ट होगा । क्या किया जाए ? अन्त में उसने यही उचित समझा, मुनि की प्राज्ञा उसे माननी चाहिए । रस को पत्थर पर डाल दिया । वह वापस गुरु के पास लोट पाया।
गुरु को सारा वृत्तान्त बताया। भर्तृहरि बहुत दुःखी हुए। उन्हें मन ही मन यह सन्देह रहा, कहीं भाई को रस का गुण यथार्थ रूप में न बताया जा सका हो, अन्यथा ऐसी मूर्खता वे कैसे करते ?
भत हरि अपने शिष्यों के साथ स्वयं शभचन्द्र से मिलने को उद्यत हए। साथ में उन्होंने अपनी रस की तूंबी ले ली । आधा रस उसमें था ही। मुनि शुभचन्द्र के पास पहुँचे । विनयपूर्वक वन्दन, नमस्कार किया, कुशल-क्षेम पूछा । तदनन्तर वह रस की तूंबी उन्हें भेंट की। शुभचन्द्र ने पूछा-इसमें क्या है ? भर्तृहरि ने कहा-इसमें एक ऐसा प्रभावकारी विचित्र रस है, जिसके छूने मात्र से ताम्र सुवर्ण हो जाता है। दीर्घकाल के घोर परिश्रम से मैंने इसे प्राप्त किया है। शुभचन्द्र ने तूंबी को उठाया और पत्थर की शिला पर दे मारा और उन्होंने कहायह पत्थर तो स्वर्ण का नहीं बना? पत्थर पर इसका प्रभाव नहीं चला ?
भाई का यह उपक्रम देख भर्तृहरि मन ही मन बड़े व्यथित हुए, कहने लगे-बारह बरस की लम्बी साधना के परिणामस्वरूप मैंने इसे पाया। मुझे नहीं मालम था, आप इस बहुमूल्य रस को यों नष्ट कर डालेंगे। आपने यह अच्छा नहीं किया। अच्छा हो, आप भी कुछ चमत्कार दिखलाइए ! इतने दिन अापने साधना की है।
शुभचन्द्र बोले-भाई ! प्रतीत होता है, तुमको अपने रस के नष्ट हो जाने से बड़ा दुःख हुआ । क्यों नहीं सोचते, यदि स्वर्ण की ही लिप्सा थी तो अपना राज्य ही क्यों छोड़ा ? स्वर्ण, रत्न, धन, धान्य किसी की भी वहाँ कमी थी? अच्छा होता, वहीं रहते। जिस सांसारिक दुःख या आवागमन का तुम अन्त करना चाहते हो, इन मंत्र-तंत्रों से क्या वह सधेगा? तुम अपना लक्ष्य भूल गए ! ज्ञान भूल गए ! फिर मुझे चुनौती दे रहे हो, कुछ चमत्कार दिखाने की। मुझे न चमत्कार में कोई विश्वास है, न मुझ में कोई चमत्कार या जादू है। फिर भी तपश्चरण में बहुत बड़ी शक्ति होती है। इतना कहकर शुभचन्द्र ने अपने पैर के नीचे की थोड़ी सी मिट्टी उठाई और पास में पड़ी हुई शिला पर डाल दी। शिला सोने की हो गई । यह देख भर्तृहरि स्तंभित रह गए। भाई के चरणों में गिर पड़े और अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे-जीवन का कितना बहुमूल्य समय मैंने लौकिक चमत्कारों को साधने में लगा दिया। उन्होंने मुनि शुभचन्द्र से श्रमणदीक्षा की प्रार्थना की।
भर्तृहरि का चित्त उपशान्त था। उनमें तीव्र जिज्ञासा थी। मुनिशुभचन्द्र ने उन्हें धर्म का उपदेश दिया। सप्त तत्त्व, नव पदार्थ का ज्ञान कराया। भर्तृहरि के मन का अज्ञानान्धकार दूर हमा, उनकी दृष्टि सम्यक हुई। उन्हें यथार्थ दर्शन मिला। उन्होंने मुनि शुभचन्द्र के पास दिगम्बर श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। मुनि शुभचन्द्र ने भर्तृहरि को श्रमण-मार्ग में दृढतापूर्वक गतिमान रहने, साधना में उत्तरोत्तर आगे बढ़ाने तथा योग का अध्ययन कराने के निमित्त ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ की रचना की। भर्तृहरि ने उनके चरणों में बैठ इसका सांगोपांग अध्ययन किया और वे अध्यात्म-योग की साधना में अविच्छिन्न रूप में लगे रहे। दोनों भाइयों ने अपने जीवन का सही लक्ष्य साधा ।
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