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पंचम खण्ड | १४२
मोह और प्रासक्ति का मुख्य कारण पर को स्व मान लेना है। दोनों सर्वथा, सर्वदा सम्पूर्णतः भिन्न हैं, अभिन्न मान लेने से परिणामों की धारा विपरीतमुखी हो जाती है । फलतः मन चंचल हो जाता है । मन का चांचल्य मिटाने के लिए स्व और पर के भेदविज्ञान को प्रमुख माध्यम के रूप में लेना होगा, केवल वहने या बोलने के रूप में नहीं, भीतर अनुभव करने के रूप में।
अर्चनार्चन
तेईसवें सर्ग में राग, द्वेष आदि को जीतने का उपदेश दिया गया है। चौबीसवें सर्ग में समता का विश्लेषण है। समता की उच्च भूमिका का वर्णन करते हुए प्राचार्य ने लिखा है
"एक व्यक्ति कल्पवृक्ष के फूलों से पूजा-सत्कार कर रहा है। दूसरा क्रुद्ध होकर मारने के लिए गले में सांप डाल रहा है। इन दोनों ही स्थितियों में जिसकी वत्ति सदा समान रहती है, वास्तव में वह योगी है। यों जो योगी समता रूपी उद्यान में विहरण करता है, उसे परमज्ञान-कैवल्य प्राप्त होने का अवकाश बना रहता है।''
पच्चीसवें सर्ग में प्रार्तध्यान का वर्णन है। छब्बीसवें सर्ग में रौद्रध्यान का वर्णन है। सत्ताईसवें सर्ग में पहले ऐसे स्थानों का वर्णन किया है, जो ध्यान में प्रतिकूल होते हैं, जिनमें म्लेच्छ जनों व पापी पुरुषों का स्थान, दुष्ट राजा द्वारा पालित स्थान, पाखण्डीजनों द्वारा घिरा हा स्थान, महामिथ्यात्व का स्थान प्रादि मुख्य हैं।२।।
आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान के लिए स्थान को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने लिखा है
"स्थान के दोष से साधनानुरागी जनों का मन तत्क्षण विकृत हो जाता है । मनोज्ञ एवं उत्तम स्थान पाकर वही स्वस्थता पा लेता है-स्थिर बन जाता है।
अढाईसवें सर्ग में प्रासन-जय, ध्यान का अधिकारी, ध्यान के लिए अनुकल स्थान आदि का वर्णन है । ध्यानानुकूल स्थानों का उल्लेख करते हुए प्राचार्य ने लिखा है
"समुद्र के तट पर, वन में, पर्वत के शिखर पर, नदी के किनारे, कमल-वन में, प्राकार में परकोटे में, शालवृक्षों के समूह में, नदियों के संगम पर, द्वीप में, प्रशस्त वृक्ष-कोटर में, पुराने उद्यान में, श्मशानभूमि में, जीवर हित गुफा में, सिद्धकूट तथा कृत्रिम, अकृत्रिम जिनालय में, जहाँ महा ऋद्धि धारक, अत्यन्त धैर्यशील योगी सिद्धि की वांछा करते है, ऐसे मन: प्रीतिकर, उत्तम, शंका और कोलाहल से रहित, सभी ऋतुओं में सुखप्रद, रमणीय, सब प्रकार के विध्नों से रहित स्थान में, सूने घर में, सूने गांव में, भूगर्भ में-तहखाने में, केलों
१. एकः पूजां रचयति नरः पारिजातप्रसूनः
क्रुद्धः कण्ठे क्षिपति भुजगं हन्तुकामस्ततोऽन्यः । तुल्या वत्तिर्भवति च तयोर्यस्य नित्यं स योगी
साम्यारामं विशति परमज्ञानदत्तावकाशम् ।। २. म्लेच्छाधमजनैर्जुष्टं दुष्टभूपालपालितम् ।।
पाषण्डिमण्डलाक्रान्तं महामिथ्यात्ववासितम् ।। ३. विकीर्यते मनः सद्यः स्थानदोषेण देहिनाम् ।
तदेव स्वस्थतां धत्ते स्थानमासाद्य बन्धुरम ।।
--ज्ञानार्णव २४. २७
-ज्ञानार्णव २७.२३
-ज्ञानार्णव २७.२२
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