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ज्ञानवाद : एक परिशीलन
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शब्दों का संग्रह जब काफी मात्रा में हो जाता है तब उसे व्यक्त ज्ञान होता है। व्यंजनावग्रह अव्यक्त है और अर्थावग्रह व्यक्त है। प्रथम रूप जो अव्यक्त ज्ञानात्मक है वह व्यंजनावग्रह है। दूसरा रूप जो व्यक्त ज्ञानात्मक है वह अर्थावग्रह है।
चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता। क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। इन्द्रियां दो प्रकार की हैं--प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी। प्राप्यकारी उसे कहा जाता है जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध हो और जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं होता उसे अप्राप्यकारी कहा जाता है। अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह के लिए अपेक्षित है और संयोग के लिए प्राप्यकारित्व अनिवार्य है। चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं अतः इनके साथ अर्थ का संयोग नहीं होता। बिना संयोग के व्यंजनावग्रह संभव नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि मन को अप्राप्यकारी मान सकते हैं पर चक्षु अप्राप्यकारी किस प्रकार है ? समाधान है-चक्षु स्पष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करती है इसलिए वह अप्राप्यकारी है। त्वगिन्द्रिय के समान स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण करती तो वह भी प्राप्यकारी हो सकती थी। किन्तु वह इस प्रकार अर्थ का ग्रहण नहीं करती अतः अप्राप्यकारी है।
दुसरा प्रश्न हो सकता है-त्वगिन्द्रिय के समान चक्षु भी आवृत वस्तु को ग्रहण नहीं करती इसलिए उसे प्राप्यकारी क्यों न माना जाय ?
उत्तर है कि यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि चक्षु काच, प्लास्टिक, स्फस्टिक आदि से आवृत अर्थ को ग्रहण करती है। यदि यह कहा जाय कि चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट अर्थ को भी ग्रहण कर लेगी, यह उचित नहीं है। जैसे चुम्बक अप्राप्यकारी होते हुए भी अपनी सीमा में रहे हुए लोहे को ही आकृष्ट करता है। व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट को नहीं।
कहा जा सकता है कि चक्षु का उसके विषय के साथ भले सीधा सम्बन्ध न हो किन्तु चक्षु में से निकलने वाली किरणों का विषयभूत पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है। अतः चक्षु प्राप्यकारी है।
समाधान है कि यह कथन सम्यक् नहीं है। क्योंकि चक्षु तैजस किरणयुक्त नहीं है। यदि चक्षु तैजस होता तो चक्षुरिन्द्रिय का स्थान उष्ण होना चाहिए । सिंह, बिल्ली आदि की आँखों में रात को जो चमक दिखलाई देती है अतः चक्षु रश्मियुक्त है। यह मानना युक्तियुक्त नहीं है। अतैजस द्रव्य में भी चमक देखी जाती है, जैसे मणि व रेडियम आदि में। इसलिए चक्षु प्राप्यकारी नहीं। अप्राप्यकारी होने पर भी तदावरण के क्षयोपशम से वस्तु का ग्रहण होता है। एतदर्थ मन और चयू से व्यंजनावग्रह नहीं होता है। शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है।
अर्थावग्रह सामान्य ज्ञान रूप है इसलिए पांच इन्द्रियों और छठे मन से अर्थावग्रह होता है।
अवग्रह के लिए कितने ही पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग हुआ है। नन्दीसूत्र में अवग्रह के लिए अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा शब्द आये हैं।३८
तत्त्वार्थभाष्य में-अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण शब्द का प्रयोग हुआ है। षट्खण्डागम में अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बन और मेधा ये शब्द अवग्रह के लिये प्रयुक्त हुए हैं।
अवग्रह के दो भेद अवग्रह के दो भेद हैं-व्यावहारिक और नैश्चयिक ।
नैश्चयिक अवग्रह अविशेषित-सामान्य का ज्ञान कराने वाला होता है और व्यावहारिक अवग्रह विशेषित सामान्य को ग्रहण करने वाला होता है। नैश्चयिक अवग्रह के पश्चात् होने वाले
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३८ नन्दीसूत्र सूत्र ५१, पृ० २२, पुण्यविजय जी।
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