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आर्य प्रव श्री आनन्द ९
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गर्भवती स्त्री के समान स्थूल उदरवाली न हो। उसी तरह चक्षु आदि के समान प्रतिनियत देश, विषय, अवस्थान का अभाव होने से मन अनिद्रिय कहा है। मन अतीत की स्मृति, वर्तमान का ज्ञान या चितन और भविष्य की कल्पना करता है। इसलिए उसे दीर्घकालिक संज्ञा भी कहा है। जैन आगम साहित्य में "मन" शब्द की अपेक्षा 'संज्ञा' शब्द अधिक व्यवहुत हुआ है। समनस्क प्राणी को संज्ञी कहा गया है। उसका लक्षण इस प्रकार है- १. सद् अर्थ का पर्यालोचन ईहा है। २. निश्चय अपोह है । ३. अन्वयधर्म का अन्वेषण मार्गणा है । ४. व्यतिरेक धर्म का स्वरूपालोचन गवेषणा है । ५. यह कैसे हुआ ? किस प्रकार करना चाहिए ? यह किस प्रकार होगा ? इस तरह का पर्यालोचन चिंता है । ६. यह इसी प्रकार हो सकता है—यह इसी प्रकार हुआ है और इसी प्रकार होगा - इस तरह का निर्णय विमर्श है। वह संज्ञी कहलाता है । १०
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अभिद आआनन्द ग्रन्थ
अभिनंदन
ग्रन्थ
धर्म और दर्शन
मन का लक्षण
जिसके द्वारा मनन किया जाता है ( मननं मन्यते अनेन वा मनः ) वह मन है । इस विश्व में दो प्रकार के पदार्थ हैं- मूर्त और अमूर्त इन्द्रियां केवल मूर्त द्रव्य की वर्तमान पर्याय को जानती हैं, मन मूर्त और अमूर्त दोनों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है ।
मन भी इन्द्रिय की तरह पौद्गलिक शक्ति- सापेक्ष है, इसलिए उसके द्रव्यमन और भावमन
ये दो भेद बनते हैं ।
मनन के आलम्बन-भूत या प्रवर्तक पुद्गल द्रव्य मनोवर्गणा द्रव्य जब मन के रूप में परिणत होते हैं तब वे द्रव्यमन कहलाते हैं । यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है । २१ मन मात्र ही जीव नहीं है, परन्तु मन जीव भी है। जीव एतदर्थं इसे आत्मिक मन कहते हैं। ११ लब्धि और उपयोग
विचारात्मक मन भावमन है। का गुण है, जीव से सर्वथा भिन्न नहीं है, उसके ये दो भेद हैं । प्रथम मानसज्ञान का विकास है और दूसरा उसका व्यापार है ।
दिगम्बर ग्रन्थ पवला के अनुसार मन स्वतः नोकर्म है। पुद्गलविपाकी अंगोपांग नाम
कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्यमन है तथा वीर्यान्तराय और नोइन्द्रिय कर्म के क्षयोपशम से जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भावमन है। अपर्याप्त अवस्था में द्रव्यमन के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति के पूर्व उसका सत्त्व मानने से विरोध आता है, इसलिए अपर्याप्त अवस्था में भावमन के अस्तित्व का निरूपण नहीं किया है । २३
मन का कार्य
चिंतन करना मन का कार्य है । मन इन्द्रिय के द्वारा ग्रहीत वस्तु के सम्बन्ध में भी चितनमनन करता है और उससे आगे भी वह सोचता है । २४ इन्द्रियज्ञान का प्रवर्तक मन है । सभी स्थानों पर मन को इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती। जब वह इन्द्रिय द्वारा ज्ञान रूप
२० कालिओवएसेणं जस्स । णं अत्थि ईहा अवोहा मग्गणा गवसणा चिन्ता बीमंसा सेणं सण्णी ति लभई ॥
२१ भगवतीसूत्र १३।७४६४
२२ सर्व विषयमन्तः करणं युगपत् ज्ञानानुत्पत्ति लिङ्ग मनः तदपि द्रव्यमन: पौद्गलिकमजीवग्रहणेन गृहीतम्, भावमनस्तु आत्मगुणत्वात् जीवग्रहणेति ।
-सूत्रकृतांग वृत्ति २०१२
२३ धवला, सूत्र ३६, पृ० १३०
२४ चरक सूत्रस्थान १।२०
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