________________
२२४ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
[ खण्ड
सूचना मस्तिष्क को पहुँचाती हैं । मस्तिष्क वस्तु ज्ञान कराता है । अनेक वाह्य और आभ्यंतर कारणों से होने वाली सहज ज्ञान की यह प्रक्रिया न्यायदर्शन ने स्वीकार की है । लेकिब जैनों ने ज्ञानोत्पादक कारणों को दो कोटियों में स्पष्टतः विभाजित किया है : मुख्य और सहयोगी १ १ । ज्ञान का मुख्य कारक तो जीव या आत्मा ही है, क्योंकि सभी कारकों की उपस्थिति में भी इसके बिना ज्ञान संभव नहीं होता । अन्य कारक अजीव होते हैं और वे सहयोगी कारक कहलाते हैं । इनमें सजीवता के गुण अध्यारोपित नहीं किये जा सकते। ये शरीरस्थ जीव के परिवेशी कर्मों के आवरण को नष्ट या दूर कर ज्ञान में सहायक होते हैं । ज्ञान के विषय में यह परा प्राकृतिक प्रवृत्ति जैन ज्ञान-सिद्धांत की ही विशेषता है २ । कर्मों के आवरण के दूर होने पर आत्मा में प्रातिभ प्रकृति प्रकट होती हैं और इसलिये ज्ञान अतीद्रिय हो जाता है । अतएव जैनों के लिये इंद्रियां, मन, प्रकाश और स्वयं ज्ञेय वस्तु भी ज्ञान के द्वितीयक या सहयोगी कारण होते हैं । ज्ञान-प्राप्ति के कारकों का यह विभाजन जैनों की एतत् विषयक गहन अंतर्दृष्टि का आभास देता है। ज्ञान प्राप्ति के क्षेत्र में दो प्रकार के कारकों की यह धारणा भौतिकवादी वैज्ञानिकों के लिये किंचित् पथवाह्य लग सकती है। वे कह सकते हैं कि मुख्य कारक की धारणा के विना भी ज्ञान संभव हैं, ज्ञान के क्षेत्र में आत्मा का यह अनधिकार प्रवेश है । लेकिन आत्मवादियों के लिये तो जानना और देखना उसी का कार्य है। इस तर्क से जैन न्यायदर्शन के कारक - साकल्यवाद के ज्ञान के सिद्धान्त को अमान्य करते हैं । लेकिन इस संबंध में जैनों के कुछ कथनों का स्पष्टीकरण आवश्यक प्रतीत होता है। उनके ज्ञान सिद्धान्त की आधारभूत तीन मान्यतायें हैं :
(i) चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं। उनका पदार्थों से संपर्क नहीं होता । (ii) अन्य इंद्रियों की तुलना में चक्षु स्थूलतर ज्ञेयों को देखती है" । (iii) आत्मा सर्वज्ञ होता है और वह त्रिकालदर्शी होता है" । वैज्ञानिक मानते हैं कि देखने को प्रक्रिया में चक्षु एक कैमरे के माध्यम से परोक्ष रूप से वस्तु से संपर्कित होकर ही उसका ज्ञान कराती है । ईषत्, आंशिक या परोक्ष प्राप्यकारिता मानना चाहिये । इससे चक्षु की क्रिया-पद्धति विषयक लुप्त विन्दु की व्याख्या हो जावेगी । इस आधार पर चक्षु की अप्राप्यकारिता वस्तुतः एक बहुत स्थूल कथन । वैज्ञानिक तो अंधकार को भी मानव के दृश्य प्रकाश परिसर से बाहर का प्रकाश ही मानते हैं । यह अंध- प्रकाश बिल्ली और उल्लू आदि तिर्यचों की दृश्यता परिसर में आता है और उसकी आवृत्ति 4000° A से कम और 8000°A से अधिक होती है । इस विषय में अन्यत्र विचार किया गया है । १६
समान कार्य करती है और वह प्रकाश के इसलिये चक्षु की अप्राप्यकारिता का अर्थ
जैनों के अनुसार, मन दो प्रकार का होता है - द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन को शरीर विज्ञानियों का मस्तिष्क माना जा सकता है। यह हमारे शरीर तंत्र की शक्ति एवं क्रियाओं का भंडारगृह है। यह दोनों प्रकार से काम करता है - यह इंद्रियों से प्राप्त संवेदनों से तथा मानसिक प्रक्रियाओं से उत्पन्न संवेदनों से प्रभावित होता है । वास्तव में, चक्षु की तुलना में मस्तिष्क की प्राप्यकारिता और भी अधिक परोक्ष होती है । जैनों का कर्म सिद्धांत भी इसकी प्राप्यकारिता की ओर संकेत देता है ।
चक्षु स्थूलतर पदार्थ देखता है, यह भी एक अव्याप्त कथन प्रतीत होता है । अन्य इंद्रियों के संपर्क में केवल आणविक संरचना वाले अदृश्य पदार्थ ही आते हैं। इसके विपर्यास में, चक्षु प्रकाश, अंधकार, छाया आदि के सुक्ष्मतर पुद्गलों को भी देखती है । इस दृष्टि से कुन्दकुन्द के अणु-वर्गीकरण में भी एक विसंगति है" । वस्तुतः वैज्ञानिक दृष्टि से चक्षु और चक्षु पूरक यंत्र ही दृश्यता या स्थूलता और सूक्ष्मता की सीमा निर्धारित करते हैं ।
आत्मा की सर्वज्ञता का सिद्धान्त ज्ञान के सिद्धान्त ऐसे हैं जो आगम से प्रामाण्य पाते हैं
Jain Education International
इंद्रिय पदार्थ संपर्क - सिद्धान्त के विरोध में जाता है । जैनों के अनेक । उनमें तार्किकता उत्तरकाल में आई है" । चक्षु की अप्राप्यकारिता एवं
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org