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________________ २२२] पं० जगन्मोहनलाल शास्त्रो साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड तो भी काम चल सकता था। कभी-कभी वर्गीकरण की अन्तहीन प्रक्रिया भ्रान्ति और अस्पष्टता को भी जन्म देती है । शास्त्रों में बताया गया है कि बहआदि भेद पदार्थों के ही होते हैं, पर इन भेदों का अनुयोग द्वारों से कोई सम्बन्ध उल्लिखित नहीं है। इसके बावजूद भी जैनाचार्यों ने पदार्थों को जिन विविध रूपों से अवलोकित किया है, वह अन्य दर्शनों में नहीं पाये जाते । अतः उनकी अवलोकन क्षमता को अपूर्वता तो स्वीकार करनी चाहिये । __ मतिज्ञान के उपरोक्त रूप सामान्य ज्ञान की दृष्टि से बताये गये हैं। इनसे छहों द्रव्यों का परिज्ञान किया जा सकता है। परन्तु इन्द्रिय-मन जन्य होने से मतिज्ञान की कुछ सीमाएं हैं। इसीलिये जब जीव या चेतन द्रव्य का ज्ञान करना पड़ता है, तो उसके विवरण को ७ द्रव्यात्मक एवं ७ भावात्मक-कूल १४ मार्गणा द्वारों से निरूपित किया जाता है। ये द्वार भी जैन दर्शन की विशेषता है । ज्ञान प्राति के चरणों की समीक्षा। ज्ञान प्राप्ति के उपरोक्त चरणों एवं ज्ञान के रूपों से यह स्पष्ट है कि इसके लिये इन्द्रिय-सम्पर्कात्मक निरीक्षण, दर्शन और बुद्धि व्यापार आवश्यक है । आधुनिक युग में विज्ञान की परिभाषा भी इसी प्रक्रिया पर आधारित है । यह भी इन्द्रियज या यंत्रज निरीक्षणों से संगत बुद्धि व्यापार का परिणाम कहा जाता है। ज्ञान प्राप्ति की उपरोक्त पांच प्रक्रियाएं उन्हीं चरणों के समकक्ष हैं, जिन्हें वैज्ञानिक अनुसरण करते हैं । वैज्ञानिक प्रक्रिया में प्रयोग, निरीक्षण, वर्गीकरण, निष्कर्ष, उपकल्पना या नियमीकरण के पाँच चरण होते हैं । इन्हें निम्न प्रकार से शास्त्रीय चरणों से समकक्षता दी जा सकती है : शास्त्रीय चरण वैज्ञानिक चरण (i) दर्शन प्रयोग (ii) अवग्रह निरीक्षण (iii) ईहा वर्गीकरण (iv) अवाय निष्कर्ष, उपकल्पता (v) धारणा नियमीकरण, संप्रसारण इससे यह स्पष्ट है कि पुरातन या शास्त्रीय युग में भौतिक जगत संबंधी ज्ञान की प्राप्ति के लिये आधुनिक प्रक्रिया ही अपनाई जाती रही है। यही नहीं, मतिज्ञान के ३३६-४५६ भेद यह बताते हैं कि यद्यपि उस यग में यांत्रिक यक्तियां नहीं थीं, फिर भी बौद्धिक एवं इंद्रियज तीक्ष्णता पर्याप्त थी। यह मान्यता भी सहज थी कि इंद्रिय एवं बदि के ममय होने पर जो ज्ञान होगा. वह निर्दोष एवं यथार्थ होगा । भौतिक जगत संबंधी आगमिक और शास्त्रीय विवरणों का क प्रक्रिया है । इसलिये इन विवरणों की आधुनिक मान्यताओं से तुलना करना अत्यंत रोचक अनुसंधान का विषय है । यह आशा की जा सकती है कि अध्ययन विधियों के समान होने से, दोनों ही पद्धतियों से प्राप्त ज्ञान में, कुछ गौण या सूक्ष्मतर विवरणों को छोड़, विशेष अंतर नहीं होना चाहिये । मान-चार या अनुयोग द्वारों का मूल्यांकन किसी भी ज्ञेय के संबंध में वैज्ञानिक अध्ययन करते समय उसे कुछ सामान्य और विशेष शीर्षकों के अंतर्गत विवेचित किया जाता है। शास्त्रीय युग में भी यही पद्धति अपनाई जाती थी और उन शीर्षकों को सारणी १ के समान छह या आठ रूपों में निर्देशित किया गया है । वैज्ञानिक दृष्टि से इन्हें चार मुख्य शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है (३) नाम (सत् या निर्देश), (ii) तयारी, प्राप्तिविधि (साधन), (i) गुण ( अधिकरण, स्थिति, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, संख्या, अल्प बहुत्व ) और (iv) उपयोग या उपभोक्ता ( भाव )। शास्त्रीय शीर्षकों के अंतर्गत अजीव तत्व के विवरण, अकलंक ने सारणी ५ के समान दिये हैं। इस सारणी में एतत्संबंधी आधुनिक विवरण भी दिये गये हैं। इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211066
Book TitleGyan Prapti ka Agamik evam Adhunik Vidihiyo ka Tulnatmaka Samikshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorN L Jain
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Comparative Study
File Size959 KB
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