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'भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। स्वीकार कर राजपुरोहित से धर्म पुरोहित बन गये। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।' जब इसका अर्थ गुरु से समझ लिया तो जैन शास्त्र ___अर्थात्-भव बीज को अंकुरित करने वाले ज्ञान की तरफ उनका झुकाव हो गया और अल्प राग-द्वेष पर जिन्होंने विजय प्राप्त करली है, भले
समय में ही आगम, योग, ज्योतिष, न्याय, व्याकवे ब्रह्मा, विष्ण, हरि और जिन किसी भी नाम से रण, प्रमाण शास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता 78 सम्बोधित होते हों उन्हें मेरा नमस्कार है।
और आगमवेत्ता बन गये और कई ग्रन्थों की टीकायें ___ 'महारागो महाद्वषो, महामोहस्तथैव च ।
लिखीं। कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते॥ हंस और परम हंस हरिभद्रसूरि के भानजे थे 10 अर्थात्-जिसने महाराग, महाद्वेष, महामोह वे भी जैन साधु बन गये। आचार्य श्री के मना | और कषाय को नष्ट किया है वही महादेव है।
६ करने पर भी वे बौद्ध दर्शन अध्ययन करने बौद्धइस प्रकार हेमचन्द्राचार्य द्वारा शिव की उदार- मठ में गये। मना स्तुति करने पर सम्राट कुमारपाल तो प्रभा
जैन-छात्र हैं, यह सन्देह होने पर बौद्ध VE वित हआ ही किन्तु उनसे द्वेष भाव रखने वाले प्राध्यापकों ने हंस को वहीं मार दिया और परमशैव-पण्डित भी दाँतों तले अंगुली दबा गये। हंस किसी तरह भाग निकले किन्तु वह भी चित्तौड़ । ___आचार्य हरिभद्र वैदिक दर्शन के परगामी आकर मारे गये ।। विद्वान तो थे ही फिर भी उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी अपने दोनों प्रिय शिष्यों के मर जाने से थी यदि किसी दूसरे धर्मदर्शन को मैं समझ न सका हरिभद्रसूरि को बहुत दुःख हुआ और बौद्धों तो मैं उसी का शिष्य बन जाऊँगा। एक बार रात्रि से बदला लेने के लिए उन्होंने १४४४ बौद्ध-साधुओं को राजसभा से लौटते समय राजपुरोहित हरिभद्र को विद्या के बल से मारने का संकल्प लिया-1 जैन उपाश्रय के निकट से गुजरे। उपाश्रय में साध्वी किन्तु गुरु का प्रतिबोध पाकर हिंसा का मार्ग छोड़ संघ की प्रमुखा 'महत्तरा याकिनी' निम्न श्लोक कर १४४४ ग्रन्थों की रचना का संकल्प के स्वर लहरी में जाप कर रही थी
लिया और माँ भारती का भण्डार भरने लगे। 'चक्कि दुगं हरिपणगं,
दुर्भाग्य से इस वक्त ६० करीब ग्रन्थ ही उपलब्ध पणगं चक्कीण केसवो चक्की। हैं। जिसमें से आधे तक अब ही प्रकाशित हुए हैं। केसव चक्की केसव,
___ आचार्य हरिभद्रसूरि ने उच्चकोटि का, विपुल दूचक्की केसीय चक्किथा। परिमाण में विविध विषयों पर साहित्य की रचना राजपुरोहित हरिभद्र ने यह श्लोक सुना तो की है। उनके ग्रन्थ जैन शासन की अनुपम सम्पदा उनको कुछ भी समय में नहीं आया तो अर्थ-बोध है। आगमिक क्षेत्र में सर्वप्रथम टीकाकार थे। योग पाने की लालसा से उपाश्रय में प्रवेश कर याकिनी विषयों पर भी उन्होंने नई दिशा व जानकारी दी।
महत्तरा से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने कहा- आचार्य हरिभद्रसूरि ने आवश्यक, दशवकालिक, 7 इसका अर्थ तो मेरे गुरु श्री जिनदत्त सूरि ही बता जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार-इन । सकते हैं।
__ आगमों पर टीका रचना का कार्य किया। जब गुरु के पास प्रातःकाल हरिभद्र गये 'समराइच्चकहा' आचार्य हरिभद्रसूरि को तो श्री जिनदत्तसूरि ने कहा-जैन मुनि बनने अत्यन्त प्रसिद्ध प्राकृत रचना है। शब्दों का लालित्य, पर ही इसका अर्थ समझ में आयेगा-तब शैली का सौष्ठव, सिद्धान्त सूधापान कराने वाली तत्काल राजपुरोहित हरिभद्र ने जैन-मुनि बनना कांत-कोमल पदावली एवं भावभिव्यक्ति का अजस्र
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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