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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
देना शिल्पाचार्य का कार्य था। इन दोनों के अतिरिक्त नहीं कर सकता। दशवकालिक सूत्र में भी विनय का बडा तीसरा शिक्षक धर्माचार्य था जिसका कार्य धर्म की शिक्षा सुन्दर वर्णन है। वहाँ कहा गया कि अविनीत को विपत्ति प्रदान करना व चरित्र का विकास करना था। धर्माचार्य प्राप्त होती है और विनीत को सम्पत्ति - ये दो बातें जिसने शील और सदाचरण का ज्ञान प्रदान करते थे। इन सब जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। विद्यार्थी प्रकार की शिक्षाओं को प्राप्त करने के कारण ही हमारा का दूसरा गुण है - अनुशासन - निज पर शासन फिर श्रावक समाज बहुत सम्पन्न था। सामान्य व्यक्ति उनको __ अनुशासन। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया कि जो सेठ और साहूकार जैसे आदरसूचक सम्बोधन से पुकारता व्यक्ति गुरुजनों के आज्ञाकारी हैं, श्रुत धर्म के तत्त्वों को था। भगवान् महावीर ने कहा है-“जे कम्मे सूरा से धम्मे जानते हैं, वे महा कठिन संसार समुद्र को तैर कर कर्मों का सूरा" अर्थात् जो कर्म में शूर होता है वही धर्म में शूर क्षय कर उत्तम गति को प्राप्त करते हैं। विद्यार्थी का होता है।
तीसरा गुण है-दया की भावना । दया, करुणा, अनुकम्पा,
जीवन मात्र के प्रति प्रेम, आत्मैक्यता की भावना - ये जैन जीवन में शिक्षा का स्थान
संस्कृति की मानवता को अनुपम देन हैं। सारे विश्व में शिक्षा का मनुष्य के जीवन में क्या स्थान होना कहीं भी जीव दया पर इतना जोर नहीं दिया गया। चाहिए, इसके बारे में दशवैकालिक सूत्र में अत्यन्त सुन्दर भगवान महावीर अहिंसा और करुणा के अवतार थे। - विवेचन मिलता है। वहाँ कहा गया है
उन्होंने कहा है"नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावयई परं। __“संसार के सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है। सुयाणि अ अहिज्जित्ता, रओ सुअसमाहिए।।"" सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है। सब लम्बे जीवन की अर्थात् अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और
कामना करते हैं। अतः किसी जीव को त्रास नहीं पहुंचाना चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित
चाहिये। किसी के प्रति वैर विरोध भाव नहीं रखना होता है और दूसरों को भी स्थित करता है। इस प्रकार
चाहिए। सब जीवों के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए।"४ अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में । शिक्षा प्राप्ति के अवरोधक तत्त्व अभिरत हो जाता है। अगर शिक्षा मनुष्य के जीवन में
उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया कि पाँच ऐसे कारण विवेक, प्रामाणिकता व अनुशासन का विकास नहीं करे
हैं जिनके कारण व्यक्ति सच्ची शिक्षा प्राप्त नहीं कर तो वह शिक्षा अधूरी है। मूलाचार में कहा गया कि
सकता । ये पाँच कारण है - अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग “विणो सासणे मूलं ।” अर्थात् विनय जिनशासन का मूल
और आलस्य । अभिमान विद्यार्थी का सबसे बड़ा शत्रु है। जिस व्यक्ति में विनयशीलता नहीं है वह ज्ञान प्राप्त
१. दशवैकालिक सूत्र ६/४/३ २. दशवकालिक सूत्र ६/२/२२ ३. दशवैकालिक सूत्र ६/२/२४ ४. आचारांग सूत्र १/२/३/४, उत्तराध्ययन सूत्र २/२० एवं ६/२ ५. उत्तराध्ययन सूत्र ११/३
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