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श्री अम्बालाल प्रेमचन्द शाह
जैनशास्त्र और मंत्रविद्या
प्रत्येक व्यक्ति को ऐश्वर्य प्राप्त करने का आकर्षण बना रहता है. उसे प्राप्त करने के लिए वह विविध बौद्धिक और शारीरिक परिश्रम करता रहता है. विद्या, मन्त्र और योग की सिद्धियों के चमत्कार ऐसे ही प्रयत्न हैं.
विद्या और मन्त्र में थोड़ा फर्क है. 'विद्या' कुछ तांत्रिक प्रयोग और होम करने से सिद्ध होती है और उसकी अधिष्ठात्री स्त्री देवता होती है, जबकि 'मंत्र' सिर्फ पाठ करने से सिद्ध होता है और उसका अधिष्ठाता पुरुष देवता रहता है. अथवा गुप्त संभाषण को 'मंत्र' कहते हैं. 'योग' अर्थात् किसी जादूई प्रयोग द्वारा आकर्षण, मारण, उच्चाटन, रोगशांति वगैरह या पैरों में लेप लगाकर ऊँचे उड़ने की, पानी की सतह पर चलने की चामत्कारिक शक्ति आदि की प्राप्ति.
जैनों में मंत्रविद्या का प्रचलन कब से हुआ, यह कहना मुश्किल है. जैनों के आगम-साहित्य में चामत्कारिक प्रयोगों के विषय में अनेक निर्देश मिलते हैं. ऐसा माना जाता है कि चौदह पूर्वों में जो दसवाँ 'विद्यानुवाद' पूर्व था, उसमें अनेक मंत्र प्रयोगों का वर्णन था, परन्तु वह पूर्व आज उपलब्ध नहीं है. उसमें से कितनेक मंत्र और उनके प्रयोग परम्परा से चले आये, वे पिछले ग्रंथों में संग्रहीत देखने में आते हैं. 'मणि-मन्त्रीषधानामचिन्त्यः प्रभावः' यह उक्ति भी जैनाचायों ने प्रामाणिक ठहराई है.
आज जो आगमग्रंथ मिलते हैं उनमें से 'बृहत्कल्पसू' में कोऊन, भुइ, पासिण, परिणापसिण, निमित जैसे जादूई विद्या के उल्लेख मिलते हैं.
'भगवतीसूत्र' से जाना जाता है कि, गोशाल महानिमित्त के आठ अंगों- १ भौम, १ उत्पात, ३ स्वप्न ४ आंतरिक्ष, ५ अंग, ६ स्वर, ७ लक्षण और व्यञ्जन में पारंगत था. वह लोगों के लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण वगैरह की भविष्यवाणी कर सकता था.
‘स्थानांगसूत्र' और 'समवायांगसूत्र' में इस महानिमित्तशास्त्र को पापश्रुत के अन्तर्गत बताया है, तो भी अनेक विद्याओं के निर्देश आगम के भाष्य, चूर्णि और टीका आदि साहित्य में मिलते हैं. लब्धि और लब्धिधारियों के उल्लेख भी पर्याप्त प्रमाण में प्राप्त होते हैं. जिसका नाम जानने में नहीं आया ऐसे एक जैनाचार्य 'अंगविज्जा' नामक विशालकाय ( १००० श्लोकप्रमाण) ग्रन्थ की रचना करें, तब इस विद्या और शास्त्र का महत्व स्वयं सिद्ध हो जाता है. एक पट्टावली के उल्लेख से ज्ञात होता है कि राजगच्छीय अभयसिंहसूरि नामक जैनाचार्य दुःसाध्य 'अंगविद्या' शास्त्र को अर्थ सहित जानते थे.
लब्धिधारी या मांत्रिकों में से कितनेक जैनाचार्यों के नाम सुप्रसिद्ध हैं. ऐसी सिद्धियों के कारण उन्होंने प्राभाविक आचार्यों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की है. याद रहे कि, जैनों में जो आठ प्रकार के प्राभाविक कहे गये हैं उनमें निमित्तबादी भी एक है. आर्य सुरक्षित, सुप्रतिबुद्ध सिद्ध रोहण, रेवतीमित्र, श्रीगुप्त, कालिकाचार्य, आर्य खपुटाचार्य, पादलिप्त सूरि, सिद्धसेन दिवाकर वगैरह प्राचीन आचार्यों के नाम मंत्रवादी के रूप में मुख्य रूप से गिनाये जा सकते हैं. प्राचीन आचायों में अज्ञातक 'अंगविज्जा' और 'जयपाहुड' इन निर्मित और चूडामणिनिमित्त शास्त्र के ग्रंथों के सिवाय किसी ने मंत्रशास्त्र की रचना की हो, ऐसा जानने में नहीं आता. नवीं और दसवीं शताब्दी के बाद हुए कितनेक श्वेताम्बर आचार्यों में बप्पभट्टिसूरि, हेमचन्द्रसूरि, भद्रगुप्तसूरि, जिनदत्तसूरि, सागरचन्द्रसूरि, जिनप्रभसूरि, सिंहतिलकसूरि वगैरह आचार्यों के रचे हुए कितनेक मंत्रमय स्तोत्र, कल्प और छोटी रचनायें मिलती हैं. जब कि दिगम्बर जैनाचार्य
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