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परीक्षाकी जाती है । यथार्थ में निर्विकल्पतामें स्थित रहने वाले साम्य दशाको प्राप्त साधु ही उत्तम कहे जाते हैं । परन्तु अधिक समय तक कोई भी श्रमण-सन्त निर्विकल्प दशामें स्थित नहीं रह सकता । अतएव सम्यक् रूपसे व्यवहार चारित्रका पालन करते हुए अविच्छिन्न रूपसे सामायिकमै आरूढ़ होते हैं। चारित्रका उद्देश्य मूलमें समताभावकी उपासना है क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर - दोनों परम्पराओं में मुनियोंके चारित्रको महत्त्व दिया गया है। नारित्र दो प्रकारका कहा गया है— सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र । प्रथम सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट जिनागन में प्रतिपादित तस्वार्थके स्वरूपको यथार्थ जानकर श्रद्धान करना तथा शंकादि अतिचार मल-दोष रहित निर्मलता सहित निःशंकित आदि अष्टांग गुणोंका प्रकट होना सम्यक्त्वाचरण चारित्र है । द्वितीय महाव्रतादिसे युक्त अट्ठाईस मूलगुणों का संयमाचरण है'। परमार्थमे तो श्रमण के निर्विकल्प सामायिक संयम रूप एक ही प्रकारका अभेद चारित्र होता है। किन्तु उसमें विकल्प या भवरूप होनेसे श्रमणोंके मूलगुण कहे जाते हैं। दिगम्बर परम्पराके अनुसार सभी कालके तीर्थंकरोंके शासन में सामायिक संयमका ही उपदेश दिया जाता रहता है। किन्तु अन्तिम तीर्थकर महावीर तथा आदि तीर्थंकर ऋषभदेवने छेदोपस्थापनाका उपदेश दिया था। इसका कारण मुख्य रूपसे घोर मिथ्यात्वी जीवोंका होना कहा जाता है। आदि तीर्थ में लोग सरल थे और अन्तिममें कुटिल बुद्धि वाले अठाईस मूलगुण इस प्रकार कहे गए हैं : पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, छह आवश्यक, केशलोंच, नग्नत्व, अस्नान, भूमिशयन, दन्तधावन वर्जन, खड़े होकर भोजन और एक बार आहार | श्वेताम्बर परम्परामें भी पाँच महाव्रतोंको अनिवार्य रूपसे माना गया है । पाँच महाव्रतों और पाँच समितियोंके बिना कोइ जैन मुनि नहीं हो सकता । 'स्थानांगसूत्र' में दश प्रकारकी समाधियोंमें पाँच महाव्रत तथा पाँच समिति - का उल्लेख किया गया है।
पाँच महाव्रतोंमें सब प्रकारके परिग्रहका त्याग हो जाता है। जहां सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग है, वहाँ सभी वस्त्रोंका भी त्याग है । कहा भी है- सम्पूर्ण वस्त्रोंका त्याग, अचेलकता या नग्नता, केशलोंच करना, शरीरादिसे ममत्व छोड़ना या कायोत्सर्ग करना और मयूरपिच्छिका धारण करना - यह चार प्रकारका औत्सर्गिक लिंग है" । श्वेताम्बरोंके मान्य आगम ग्रन्थमें भी साधुके अठाईस मूलगुणों से कई बातें समान मिलती है। " स्थानांगसूत्र' में उल्लेख है - 'आर्यो ।'....मैंने पाँच महाव्रतात्मक, संप्रतिक्रमण और अलधर्मका निरूपण किया है । आर्यो । मैंने नग्नभावत्व, मुण्डभाव, अस्तान, दन्तप्रक्षालन- वर्जन, छत्र-वर्जन, पादुका-वर्जन, भूमि-शय्या, केशलोच आदिका निरूपण किया है । श्वेताम्बर - परम्परामें साधुके मूलगुणोंकी
१. जिणणाणविद्धिं पढमं सम्मत्तचरणचारितं ।
विदियं संजमचरणं जिणणासदेसियं तं पि ॥ चारितपाहुड, गा० ५
२. बावीसं तित्थयरां सामाइयसंजम उवदिसंति ।
छेदुवट्ठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य । मूलाचार, मा०५३३
३. वदसमिदिदिय रोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं ।
खिदिरायणमदतभावणं ठिदिभोयणमेवभक्तं च ॥
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहि पण्णत्ता । प्रवचनसार, गा० २०८-२०१
४. ठाणांगसुत्त स्वा० १० सूत्र ८
५. अच्चेलक्कं लोचो वोसदुसरीरदा य पडिलिहणं ।
एसो हु लिंगकप्पो चदुव्विहो होदि उस्सगे || भगवती आराधना, गा० ८२ ६. मुनि नथमल उत्तराध्ययन- एक समीक्षात्मक अध्ययन, कलकत्ता, १९६८, पृ० १२८
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