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जैनदर्शन में समतावादी समाज रचना के प्रेरक तत्त्व / ३३१
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शुद्रातिक्षुद्र जीव की भी देखभाल और रक्षा की जाये, जल, वृक्ष, नदी, तालाब, खेत, वन, वायु, वन्यपशु, वनस्पति सभी को सुरक्षा प्रदान की जाये सभी प्रणियों को अभयदान दिया जाये । कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर का जीवन-दर्शन सबका हित और कल्याण चाहना है, हित और कल्याण करना है, आचार-व्यवहार में भी मंत्री, अहिंसा, समता भाव हो, केवल विचारों में, वाणी में, शब्दों में हो समता भाव न हो। कोरी सहानुभुति से या 'लिप्स सिम्पेची' से काम नहीं चलेगा, उसके अनुकूल आचरण भी करना जरूरी है।
श्राचार्य जीतमल ने समता को श्रात्मधर्म मानते हुए कहा है-
समता-धर्म को प्राचरित करने पर ही जीवात्मा इस संसार सागर का संतरण कर सकता है । समता में सद्गति है, समता में सद्भाव है, समता में प्रेम-मंत्री है। इसके विपरीत विषमता या तामस में दुर्गति है, दुर्भावना है, द्वेष-घृणा है । समता सुधा है, अमृत है, राग अग्नि है । 'ज्ञानार्णव' में कहा गया है कि जब जीव अपनी आत्मा को प्रात्मा के द्वारा प्रोदारिक, तेजस व कार्मण इन तीन शरीरों से तथा राग, द्वेष व मोह इन तीन दोषों से भी रहित जानता है। क्रूर तथा उग्रवादी की क्रूरता, उग्रता
तब उसका साम्यभाव में प्रवस्थान होता है समत्वयोगी के प्रभाव से शान्त हो जाती है
समता आतम-धर्म है, तामस है परन्धर्मं । अच्छा अपने आप में रहन्त समझो मर्म ॥ समता में साता पणी, दुख विषमता माँह ।
ममता तज समता भजो, जो तिरने की चाह ॥
१. ज्ञानार्णव, २०१६
२. ज्ञानार्णव, २०२०
समता मोह, क्षोभ को शान्त करती है। भगवती धाराधना में मोह को हाथी कहा गया है— मोहमहावारणेन हम्यति । जो व्यक्ति समता भाव में विचरण करता है उसकी कथनीकरनी समान होती है, उसका अन्तर्वाह्य एक जैसा होता है। उसका मन सम्यक होता है'सम्यक् मणे समणे ।' जिस प्रकार हमें अपने प्राण प्रिय हैं, उसी प्रकार दूसरे जीवधारियों को भी अपने प्राण प्रिय हैं। भला हमें किसी के प्राण हरने का क्या अधिकार है जबकि हम उसे प्राण प्रदान नहीं कर सकते । यही समत्वदृष्टि है, श्रात्मौपम्यभाव है। 'गीता' में कहा गया है कि वही महान योगी है जो प्रात्मौपम्यभाव रखकर अपने सुख-दुःख के समान ही, दूसरे के सुख-दुःख को समझता है* प्रासक्ति का परित्याग कर सिद्धि प्रसिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित होकर कर्म करना समस्वभाव है। जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता
५. गीता
६. गीता - २,४८
शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बढ़वेरा परस्परम् । अपि स्वार्थप्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः ॥ २
३. प्रवचनसार १७
४. भगवती श्राराधना १३०९
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